मुंबई। चौदह मार्च 1931 में मुंबई के मैजिस्टिक सिनेमा हॉल के बाहर दर्शकों की काफी भीड़ जमा थी। टिकट खिडकी पर दर्शक टिकट लेने के लिए मारामारी करने पर आमदा थे। चार आने के टिकट के लिए दर्शक चार-पांच रुपए देने के लिये तैयार थे।
इसी तरह का नजारा दादा साहब फाल्के की फिल्म राजा हरिश्चंद्र के प्रीमियर के दौरान भी हुआ था लेकिन उस दिन बात ही कुछ और थी। सिने दर्शक पहली बार रुपहले पर्दे पर सिने कलाकारों को बोलते सुनते देखने वाले थे।
सिनेमा हॉल के गेट पर फिल्मकार आर्देशिर ईरानी दर्शकों का स्वागत करके उन्हें अंदर जाकर सिनेमा देखने का निमंत्रण दे रहे थे। वह केवल इस बात पर खुश थे कि उन्होंने भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा का निर्माण किया है लेकिन तब उन्हें भी पता नहीं था कि उन्होंने एक इतिहास रच दिया है और सिने प्रेमी उन्हें सदा के लिए बोलती फिल्म के जन्मदाता के रूप में याद करते रहेंगे। फिल्म के निर्माण में लगभग 40000 रुपए खर्च हुए जो उन दिनों काफी बड़ी रकम समझी जाती थी।
फिल्म आलम आरा की रजत जंयती पर फिल्म जगत में जब उन्हें पहली बोलती फिल्म के जन्मदाता के रूप में सम्मानित किया गया तो उन्होंने कहा कि मैं नहीं समझता कि पहली भारतीय बोलती फिल्म के लिए मुझे सम्मानित करने की जरूरत है, मैंने वही किया जो मुझे अपने राष्ट्र के लिए करना चाहिए था।