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BIRTHDAY SPECIAL : नेत्रहीनों के लिए रोशनी की लौ बने लुइस ब्रेल - Sabguru News
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BIRTHDAY SPECIAL : नेत्रहीनों के लिए रोशनी की लौ बने लुइस ब्रेल

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BIRTHDAY SPECIAL : नेत्रहीनों के लिए रोशनी की लौ बने लुइस ब्रेल
BIRTHDAY SPECIAL: Light flame for visually impaired Luis Braille
BIRTHDAY SPECIAL: Light flame for visually impaired Luis Braille

BIRTHDAY SPECIAL: Light flame for visually impaired Luis Braille

नई दिल्ली | विश्व में चार जनवरी का दिन एक ऐसे शख्स की याद में मनाया जाता है जिसने अपने और दुनिया के तमाम ऐसे लोगों की आंखों के सामने छाए अंधेरे के बादलों को हटाकर उनमें शिक्षित होने की एक लौ जलाई। ‘ब्रेल लिपि’ के अविष्कारक लुइस ब्रेल को दुनिया में अंधेपन के शिकार लोगों के बीच मसीहा के रूप में जाना जाता है। 1809 में फ्रांस के एक छोटे से कस्बे कुप्रे के एक साधारण परिवार में जन्में लुइस ब्रेल ने अपने 43 वर्ष के छोटे से जीवन में अंधेपन का शिकार लोगों के लिए वह काम किया, जिसके कारण आज वह शिक्षित हैं, समाज की मुख्यधारा से जुड़े हैं, स्कूलों, कॉलेजों में दूसरे विद्यार्थियों की तरह पढ़ सकते हैं, व्यापार कर सकते हैं। साधारण परिवार में जन्में लुइस ब्रेल के पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोडों के लिये काठी बनाने का काम करते थे। पारिवारिक जरूरतों और आर्थिक संसाधन के सीमित होने के कारण साइमन पर कार्य का अधिक भार रहता था। अपनी सहायता के लिए उन्होंने अपने तीन साल के लुइस को अपने साथ लगा लिया।

यहीं से लुइस ब्रेल की कहानी का आगाज होता है जहां दुनिया में उन्हें किसी न किसी रूप में याद किया जाता है। एक दिन पिता के साथ कार्य करते वक्त वहां रखे औजारों से खेल रहे लुइस के आंख में एक औजार लग गया। चोट लगने के बाद उनकी आंख से खून निकलने लगा। परिवार के लोगों ने इसे मामूली चोट समझकर कर आंख पर पट्टी बांध दी और इलाज करवाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई।

वक्त की बीतने के साथ लुइस बड़ा होता गया और घाव गहरा होता चला गया। आठ साल की उम्र में पहुंचते-पहुंचते लुइस की दुनिया में पूरी तरह से अंधेरा छा गया। परिवार और खुद लुइस के लिए यह एक बड़ा आघात था। लेकिन आठ साल के बालक लुइस ने इससे हारने के बजाए चुनौती के रूप में लिया। परिवार ने बालक की जिज्ञासा देखते हुए चर्च के एक पादरी की मदद से पेरिस के एक अंधविद्यालय में उनका दाखिला करा दिया।

16 वर्ष की उम्र में लुइस ब्रेल ने विद्यालय में गणित, भूगोल एवं इतिहास विषयों में महारथ हासिल कर शिक्षकों और छात्रों के बीच अपना एक स्थान बना लिया। 1825 में लुइस ने एक ऐसी लिपि का आविष्कार किया जिसे ब्रेल लिपि कहा जाता है। लुइस ने लिपि का आविष्कार कर ²ष्टीबाधित लोगों की शिक्षा में क्रांति ला दी।

ब्रेल लिपि का विचार लुई के दिमाग में फ्रांस की सेना के कैप्टन चार्ल्र्स बार्बियर से मुलाकात के बाद आया। चार्ल्स ने सैनिकों द्वारा अंधेरे में पढी जाने वाली नाइट राइटिंग व सोनोग्राफी के बारे में लुइस को बताया था। यह लिपि कागज पर उभरी हुई होती थी और 12 बिंदुओं पर आधारित थी। लुइस ब्रेल ने इसी को आधार बनाकर उसमें संशोधन कर उस लिपि को 6 बिंदुओं में तब्दील कर ब्रेल लिपि का इजात कर दिया। लुइस ने न केवल अक्षरों और अंकों को बल्कि सभी चिन्हों को भी लिपि में सहेज कर लोगों के सामने प्रस्तुत किया।

चार्ल्स द्वारा जिस लिपि का उल्लेख किया गया था, उसमें 12 बिंदुओ को 6-6 की पंक्तियों में रखा जाता था। उसमें विराम चिन्ह , संख्या और गणितीय चिन्ह आदि का समावेश नहीं था। लुइस ने ब्रेल लिपि में 12 की बजाए 6 बिंदुओ का प्रयोग किया और 64 अक्षर और चिन्ह बनाए। लुइस ने लिपि को कारगार बनाने के लिए विराम चिन्ह और संगीत के नोटेशन लिखने के लिए भी जरुरी चिन्हों का लिपि में समावेश किया।

ब्रेल ने अंधेपन के कारण समाज की दिक्कतों के बारे में कहा था, “बातचीत करना मतलब एक-दूसरे के ज्ञान को समझना है, ²ष्टिहीन लोगों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है और इस बात को हम नजर अंदाज नहीं कर सकते। उनके अनुसार विश्व में अंधेपन के शिकार लोगों भी उतना ही महžव दिया जाना चाहिए जितना साधारण लोगों को दिया जाता है।”

1851 में उन्हें टी.बी. की बीमारी हो गई जिससे उनकी तबियत बिगड़ने लगी और 6 जनवरी 1852 को मात्र 43 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। उनके निधन के 16 वर्ष बाद 1868 में रॉयल इंस्टिट्यूट फॉर ब्लाइंड यूथ ने इस लिपि को मान्यता दी।

लुइस ब्रेल ने केवल फ्रांस में ख्याति अर्जित की बल्कि भारत में भी उन्हें वहीं सम्मान प्राप्त है जो देश के दूसरे नायकों को प्राप्त है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत सरकार ने 2009 में लुइस ब्रेल के सम्मान में डाक टिकिट जारी किया था।  इतना ही नहीं लुइस की मृत्यु के 100 वर्ष पूरे होने पर फ्रांस सरकार ने दफनाए गए उनके शरीर को बाहर निकाला और राष्ट्रीय ध्वज में लपेट कर पूरे राजकीय सम्मान से दोबारा दफनाया।

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