सबगुरु न्यूज। काम और क्रोध जब इस सृष्टि में शून्य हो जाता है तो प्राणी अति आनंदित होकर अपने कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न कर लेता है। काम की भावना ना होने से सच्चे प्रेम की उत्पत्ति होती है और क्रोध ना होने से सभी प्राणियों में वैमनस्य ना होकर सहयोग की भावना उत्पन्न होती है।
इसी काम क्रोध की शून्य अवस्था में स्त्री और पुरुष में किसी तरह का भी भेद नहीं होता, बस प्राणी मात्र के लिए हर्ष, उमंग, उल्लास का वातावरण बना रहता है। उसका हर कृत्य सहनीय और शुभ लगता है। होली का पर्व यह संदेश देता है कि प्राणी काम, क्रोध को जलाए तथा प्रेम के रंग में एक दूसरे में रम जाए जिससे आत्मिकता और सहयोग बढे।
इसी भावना में होली के दिन रंग गुलाल किसी भी परिचित-अपरिचित के लगा दे तो वह बुरा नहीं मानता। मजाक और ठिठोली पर भी वह क्रोध नहीं करता। इसी कारण आदिकाल से होली को रंगों का त्योहार माना गया है, जिसमें बिना किसी भेदभाव के रंग एक दूसरे को लगाते हैं।
हमारे देश की धर्म और संस्कृति बड़ी उन्नत रही है जिसका आधार प्रकृति और प्रकृति की शक्तियां ही रहा है। कालचक्र घूमता हुआ दिन, रात व ऋतु परिवर्तन करता हुआ युगों का निर्माण करता है। इस काल चक्र ने भगवान शिव के तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म करवाया।
स्कंद पुराण के अनुसार दक्ष कुमार के यज्ञ में सती ने प्राण त्याग दिए और वह यज्ञ में भस्म हो गई। तब अपनी शक्ति में बिछुड़े शिव ने हिमालय पर्वत पर जाकर तपस्या प्रारंभ कर दी। उसी समय तारकासुर नामक राक्षस ने अपनी तपस्या के बल पर ब्रह्मा जी से अजर अमर और अजय होने का वरदान मांग लिया। देवता इससे भयभीत हो ब्रह्मा जी के पास गए तो वहां आकाशवाणी हुई भगवान शिव के कोई पुत्र होगा तब तारकासुर का वध होगा।
सभी देवता बृहस्पति को मुखिया बना हिमालय के पास गए तथा निवेदन किया कि आप एक पुत्री उत्पन्न कर उसका विवाह शिव से कराएं। हिमालय ने ऐसा ही किया उसकी पत्नी मैना के गर्भ से एक कन्या उत्पन्न हुई उसका नाम गिरिजा रखा।
गिरजा बड़ी हुई, एक दिन हिमालय अपनी पुत्री गिरिजा को ले शिव के दर्शनार्थ गए तथा शिव से आज्ञा मांगी कि मुझे नित्य मेरी पुत्री गिरजा के साथ आप के दर्शन करने की आज्ञा दें। शिव ने कहा आप प्रतिदिन मेरे दर्शनार्थ पधारें मगर आप की पुत्री को ना लाएं। हिमालय ने कारण जानना चाहा तो शिव में कहा यह कन्या सुंदर सुशील व मृदु भाषा बोलती है। अतः रोज इसे मेरे समीप ना लाओ।
इस पर पार्वती बोली शंभू आप तप शक्ति से संपन्न है और भारी तपस्या कर रहे हैं। आप मुझे इसलिए नहीं आने देंगे कि आपकी तपस्या निर्विघ्न में चलती रहे। पार्वती बोली आप कौन हैं और यह सूक्ष्म प्रकृति क्या है। महादेव बोले हे सुंदरी, मैं उत्तम तपस्या के द्वारा प्रकृति का नाश करता हूं, प्रकृति से अलग रहकर अपने यथार्थ स्वरुप में स्थित होता हूं। अतः सिद्ध पुरुषों को प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिए।
पार्वती बोली शंकर आपने उत्तम वाणी द्वारा कहा क्या यह प्रकृति नहीं है, यह संपूर्ण जगत प्रकृति से बंधा है। आप जो सुनते हो, खाते हो, देखते हो, वह सब प्रकृति किए ही कार्य हैं। आप प्रकृति से मिले हुए हैं यदि नहीं तो आपको अब मुझे भय नहीं मानना चाहिए। शिव ने हंसकर पार्वती को नित्य दर्शन की आज्ञा दी।
इस प्रकार पार्वती नियमित रूप से आज्ञा पाकर शिव के दर्शनार्थ जाती थी। सभी देवों ने कामदेव को अपने पत्नी रति सहित आह्वान किया तथा सभी देवों में कहा तुम अब शिव पर अपने कामबाण बरसाओ ताकि उनके पुत्र उत्पन्न हो और ताकतवर राक्षस का वध हो। कामदेव ने ऐसा ही किया पांच बाण काम के सिर पर चलाएं लेकिन वह सब असफल हो गए।
काम के बांण से शिव के नेत्र खुले। अपने सामने बैठी पार्वती के दर्शन मात्र से मोहित हो गए। शिव को अचानक अपनी हैसियत का भान हुआ और वे सोचने लगे कि मैं स्वतंत्र हूं, मैं निर्विकार हूं तो पार्वती के दर्शन से मोहित क्यों हो गया। किसने ऐसी कार्यवाही की। शिव ने चारों ओर देखा, दक्षिण दिशा में कामदेव दिखाई दिए जो बारी बारी से शिव पर काम बाणों की वर्षा कर रहे थे। इस स्थिति को देख शिव को अति क्रोध आया तब अपने तीसरे नेत्र की अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया।
ऐसी प्राचीन मान्यता है कि कामदेव को भगवान शिव में इस प्रकार भस्म किया, तभी से होली दहन उत्सव मनाने की प्रथा विधमान है। क्योंकि इस दिन शिव ने संपूर्ण जगत को काम और क्रोध से शून्य कर दिया था।
सौजन्य : भंवरलाल