सबगुरु न्यूज। ऋतुराज बसंत इस प्रकृति मे ऐसी ऊर्जा का संचार कर जाता है कि हर सजीव व निर्जिव में एक ऐसी चमक आ जाती है कि वह स्वत: ही सभी को बड़े प्रेम में सम्मोहित कर मिलन की उस बेला मे ले जाते हैं जहां “मै” खत्म हो जाता है और “हम” की भावना पैदा हो जाती है। दो “मै” मिलकर “हम” को जन्म देते हैं और यहीं “हम” आने वाले कल के लिए नईं ऊर्जा और नया सृजन बनती है।
पूरे परवान पर चढ़कर बंसत मन के यौवन की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है और मिलन को बेताब हो जाता है, तब सीमा को लांघती हुई ऊर्जाएं होली को जलाकर सर्वत्र प्रेम का उजाला फैला देती हैं और इस होली की आग मे कच्चा अन्न तो पक जाता है, अन्न के नए बीज बो कर नया जन्म बसंतीय नवरात्रा में देता हैं इस कारण बसन्ती नवरात्रा नई ऊर्जा को जन्म देता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव! प्रकृति की व्यव्स्थाए सुनिश्चित है और बंसत ॠतु के द्वारा अपनी सभी ॠतुओं को प्रेम मिलन और समन्वय का संदेश देती है। बंसत की ऊर्जा का समावेश हर ऋतु में करके हर मौसम में फसल तथा वनस्पतियों को पैदा कर जीव व जगत को सुखी और समृद्ध बनाती हैं। इनसे नकारात्मक ऊर्जा को खत्म कर मौसमी बीमारियों से रक्षा करती हैं।
इसलिए हे मानव, तू हर ऋतु का भरपूर उपयोग कर और प्रेम से उस ऋतु की ऊर्जा को उसके गुण धर्म के अनुसार ही ग्रहण कर। ऋतुएं तो बदलती रहेंगी लेकिन तेरा मन ऋतुओं के अनुसार नहीं बदला तो तेरा मिलन उस फसल को बो देगा जिसके बीज फसल को उगने से पहले ही उसे मिट्टी में दफ़न कर देंगे ओर उस फसल का हासिल भी तुझे चुकाना पडेगा।
इतना ही नहीं बल्कि यह भी सुन कि ये प्रकृति किसी भाषा, लिंग, धर्म और संस्कृति की मोहताज नहीं है ओर ना ही किसी भी संस्कार की। प्रकृति तो अपनी हैसियत खुद तय करतीं हैं और उसकी संस्कृति है प्रेम।
सौजन्य : भंवरलाल