सबगुरु न्यूज। ज्ञान का लठ्ठ लेकर घूमता हुआ व्यक्ति इस दुनिया में सबको बिना ज्ञान का समझ कर अपने को ही श्रेष्ठ मान लेता है, चाहे जीवन का कोई विषय हो। आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा वैज्ञानिक आदि कोई भी क्षेत्र हो।
उसके सामने जब कोई दूसरा व्यक्ति भी ज्ञान का लठ लेकर अपने ज्ञान की प्रदर्शनी लगाता है तो बस वहीं से द्वन्द की शुरुआत हो जाती हैं और विश्व समाज ऐसे अघोषित महायुद्ध का शंखनाद कर देता कि समूचा विश्व समाज समुदाय वर्ग, भाषा, लिंग, रंग भेद और जाति में बदल कर बंट जाता है।
यह स्थिति यहां तक ही सीमित नही रहतीं और वह “ज्ञान का लठ” फिर परिवार और घरों में घुसकर वहां लठ बजाना शुरू कर देता है, यहां तक की माता-पिता, पति पत्नी, बच्चे सभी आन्तरिक प्रेम से परे हटकर एक औपचारिक अजनबी जीवन जीने की शुरुआत कर देते हैं। अपने ही आनंद में जो व्यक्ति परिवार मस्त थे वे उस एक अन्जाने संघर्ष की ओर बढ जाते हैं।
हर ज्ञान क्षेत्र का स्वामी अपने को पहला व अंतिम ज्ञानी मानकर अपनी ही श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए फिर अवगुण के महासागर में कूदता है और डुबकी लगाकर उसका कचरा अपने हाथ में ले आता है। एक बलशाली की चुनर को ओढ़कर वह उस कचरे को दूसरों की ओर फेंकता है। इस पर भी उसे यदि संतुष्टि नहीं मिले तो फ़िर व्यक्तिगत और जातिगत हमले शुरू कर ज्ञान के लठ से संघर्ष की शुरुआत करा देते हैं।
यही जमीनी हकीकत है जो सदियों से मानव को उस अवगुणों के महासागर में डूबो कर आज भी विश्व समाज को उस दोराहे पर लाकर खडा कर दिया जहां कोई भी किसी से कम ज्ञानी ओर बलवान नहीं मान रहा है।
प्रकृति का “चरित्र है पूर्ति करना” और सभी को सुखी और समृद्ध बनाने में मदद करना। यही संत है जो मूक दर्शक बन अपना उपदेश देतीं हैं। इंसानी चरित्र ओर उपदेश तो एक नकल है जिसे सदा प्रकृति से ही चुराया जाता है और उसे चुरा कर भी व्यक्ति इर्ष्या, जलन, झूठ के अंधकार में रह कर भी अपने ज्ञान का पट्टा लिखवाने की कवायद करता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव तेरे अंदर की सोच मे झूठे ज्ञान का लट्ठ लेकर जो रावण बैठा है उसे बाहर लाकर उस खुले आसमान की ओर देख, उसकी विशालता का ज्ञान तो छोड़ तू उसे पूरी तरह देख भी नहीं पाएगा।
इसलिए हे मानव चैत्र की ऊर्जा जो प्रकृति बढ़ा रही है और तुझे संदेश दे रही है कि हे मानव तेरे यौवन का उमंग बढकर फाल्गुन में समा चुका है और तुझे नई ऊर्जा मिल गई है। इस ऊर्जा को अब संतुलन के पर्व की ओर ले जा जहां प्रकृति तूझे नवीन रात्रि की ओर ले जा रही है।
ज्ञान, भक्ति और कर्म के लट्रठ को प्रकृति चला रही है उस लट्रठ से तू जख्मी नहीं होगा वरन् तेरे दिल के जख्म भर जाएंगे और तेरे अवगुण जिसे तू स्वयं जानता है उसे उस परमात्मा के कदमों में डाल क्योंकि वो ही एक अमीर हैं और बाकी सब गरीब है। इस कारण वह गरीबों का नाथ कहलाता है।
सौजन्य : भंवरलाल