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मन के आंगन में विचारों की फसल - Sabguru News
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मन के आंगन में विचारों की फसल

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मन के आंगन में विचारों की फसल

सबगुरु न्यूज। दर्द के आंसुओं से वह जमीन को सींचता हुआ साल के चार नवरात्रा की तरह चारों फसलों के लिए जमीन में बीज बोता है। गेहूं व जौ के ज्वारे ही नहीं बल्कि हर अन्न व साग सब्जी फल के बीज उस जमीन में बोकर नौ दिन नहीं 90 दिन तक सभी सुखों को त्याग सर्दी, गरमी, बरसात, शीत लहर, लू के प्रचंड झोंके के बीच खुले आसमान के नीचे खुले मन से उन बीजों से बढ़ती हुई फसल को नियमित रूप से सींच कर जंगली पशुओं से व मौसमी बीमारियों से रक्षाकर फ़सल को लेता है और उसे दुनिया में फैला देता है। ठीक उसी तरह जैसे नवरात्रा में बोये गए ज्वारे अंत में परमात्मा को समर्पित कर सभी को प्रसाद के रूप में बाट देते हैं।

रबी, खरीफ, जायद ही उसके प्रकट व गुप्त नवरात्रा होते हैं और पूर्ण रूप से इन फसलों के लिए वह सब कुछ त्याग देता है और फ़सल प्राप्त करके वह बुनियादी आवश्यकता के लिए दर दर भटकने को मजबूर हो जाता है। सदियों से यही जमीनी हकीकत इस दुनिया में देखी जा रही है। उसके मन की फसल के बीज उसे पर्याप्त फल नहीं दे पा रहे हैं।
विकास चांद सितारों के महासागर मे गोते लगा रहा था और ऊंचे आसमान के उन ग्रहों में बैठ कर जमी की हरकतों को निहार रहा था। वह निहार रहा था दूसरी दुनिया को जहां ऐरियल अपना गुजर बसर कर रहे थे। ऊंचे बैठ कर वह दुनिया की दूरियों को कम कर रहा था और महा मानव बनकर दुनिया को अपने शिंकजे मे कस रहा था।

विकास की आंखों को जमीन दिख रही थी, उस जमीन का विदोहन कर बहुमूल्य धातुओं हीरे और रत्नों को सदा निकालने की कवायद करता रहा तथा दुनियां को खूबसूरत बनाता रहा। सभ्यता और संस्कृति के विकास की कहानी में सदियों से लगा रहा तथा पत्थरों ओर लाठियों के स्थान पर परमाणु अस्त्र शस्त्र से लडने लगा। महाशक्ति बन अंहकार से गाजता रहा।

इस पूरी कवायद में उसके दृष्टिकोण मे कमजोर मानव को सदा ग़ुलाम बनाने का आधार ही था। इस पूरे खेल में विश्व की आधी से ज्यादा जनसंख्या कमजोर होकर जीवन यापन से जूझती रहीं। कमजोर होकर भी वह आधी से ज्यादा दुनिया दिल में पीडा ले आंसुओं को बहाती रही और उन आंसुओं से जमीन को भिगोकर उस से अन्न को ऊपजाती रहीं। अपना तो गुजर बसर वह करतीं रही बाकी अन्न पूरी दुनियां को बांटती रही।

इस कवायद में भले ही वो अन्न दाता कहलाया पर उसे अपने ही उन आंसुओं का मोल नहीं मिला जिन आंसुओं से जमीन को भिगोया। विकास सदियों से अपने स्वार्थो की जमीन को ढूंढता रहा और हकीकत के आधार के कंधों पर खड़ा हो कर उस आधार को जर्जरित करता रहा।

बुनियादी आवश्यकता की पूर्ति के बिना ही विकास ने सबको “स्मार्ट” बनाने की कवायद की। इस कवायद में अन्न दाता कहलाने वाला मूल आधार जर्जरित हो कर अपनी ही भूमि पर चित हो गया और अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस गया। उसकी आंखों में कर्ज का मोतियाबिंद छा गया और उसकी जमीन विकास ने छीन ली। अन्न दाता अपनी ही जमीन पर मजदूरी करने लग गया, उसकी जमीन से अन्न नहीं आशियाने उपजने लगे।

जमीन का स्वामी भूमिहीन हो गया और “विकास” जमींदार बन कर अन्नदाता का स्वामी बन गया। सदियों से आधी से ज्यादा दुनिया के जीवन का आर्थिक आधार ये भूमि ओर उसमे पैदा होने वाला अन्न ही रहा है फ़िर भी इस क्षेत्र की बुनियादी जरूरतें आज तक भी पूरी दुनियां में कहीं भी नहीं हो पाई और इस क्षेत्र ने बगावत का झंडा उठा लिया तो “विकास” ने इन्हें कई रंगों से रंग दिया ओर अन्न दाता की ही परिभाषा बदल दी।

अंत मे “विकास” ख़ुद अन्नदाता बन गया और जमी के अन्नदाता को मज़दूर बना कर मोहताज कर दिया। अपनी मेहरबानियों का उसे ग़ुलाम बना कर उसे ओर जर्जरित होने के लिए छोड़ दिया गया। उसकी हौसला अफजाई के लिए उसे स्मार्ट अन्नदाता की उपाधि से नवाजा गया लेकिन हकीकत मे “विकास” खुद स्मार्ट बन गया। असली अन्नदाता आंसू बहाता रहा, बिना बीज की जमीन को अपने ही आंसुओं से भिगोता रहा।

संत जन कहते हैं कि हे मानव तू नवरात्रा के ज्वारे को ऐसी ही त्याग तपस्या से सींच, भले ही तुझे मन के आंगन में बोयी विचारों की फसल का मोल न मिले लेकिन फिर भी तेरा कर्म लोक कल्याण कारी होगा।

सौजन्य : भंवरलाल