सबगुरु न्यूज। जीवन मे कोई उद्देश्य हो या ना हो तो भी जीवन स्वतः ही कर्म के उस महायुद्ध में लग जाता है जहां व्यक्ति उस आवश्यकता रूपी फल की प्राप्ति के अपने ज्ञान की गीता से अंधे स्वार्थी व लोभ रूपी धृतराष्ट्र को जो बल ओर अहंकार के दुर्योधन रूपी लाठी से दूसरों को अनुनय-विनय करने के बाद भी दया नहीं दिखा रहा है।
छल कपट करके आवश्यकता रूपी पांडवों को कुछ भी नहीं दे रहा है। ये आवश्यकताएं अपनी पूर्ति के लिए महायुद्ध का शंखनाद कर हार व जीत की चिंता किए बिना रण के मैदान में अस्त्र शस्त्र उठा लेती हैं और फल की प्राप्ति के लिए कर्म, धर्म, आस्था, विश्वास, पाप, पुण्य को पीछे छोड़ पाखंड, दंड, भेद से महायुद्ध को जीतने के लिए गुरू रूपी द्रोणाचार्य को झूठ के खेल में डालकर संरक्षक रूपी भीष्म को छलनी छलनी कर देती है। दानवीर रूपी कर्ण को धोखे से मार कर अपनी स्वयं की आवश्यकता को पूरी कर लेती है।
कर्म के इस महायुद्ध में फल की प्राप्ति के बाद भी व्यक्ति शून्य हो जाता है और दूसरों की आवश्यकता को पूरी करने के लिए कर्म के अखाडे में दया रूपी महायुद्ध में फंस जाता है। इस युद्ध में सब कुछ अपने परायों को लुटाकर अपनों के मोह के चक्रव्यूह में फंस जाता है और अभिमन्यु की तरह वापस नहीं निकल पाता तथा अपने जीवन की यात्रा को समाप्त कर देता है।
कर्म का ज्ञान और फल की प्राप्ति उसे देख कर मुस्करा जाते हैं और कहते हैं कि हे मानव ये जीवन नश्वर है और हर आवयकता मृत्यु लोक है तथा कर्म का ज्ञान यमराज की ओर ले जाने वाला मार्ग है और कर्म के इस महायुद्ध में तेरी विजय तेरी अंतिम यात्रा के साथी हैं। फल की प्राप्ति उस चिता के समान है जो जहां अग्नि तेरे शरीर को देहदान के रूप मे राख़ बनाकर छोड़ जाएगी और तेरे अपने तेरी यादों के श्राद्ध करेगे।
संत जन कहते हैं कि हे मानव आवश्यकता की पूर्ति के लिए महायुद्ध और फल की प्राप्ति के बाद भी वह सब शून्य में ही तब्दील हो जाएंगे तो फिर इस कर्म के महायुद्ध को अपनी ही नहीं समूह की आवश्यकता को पूरी करने के लिए कर ताकि जन सैलाब तेरी जय जय कार के नारे सदा लगाता रहे।
इसलिए हे मानव तू फल की प्राप्ति की शून्यता को देख और कर्म के महायुद्ध को छल, कपट, झूठ से नहीं बस बिना लोभ के ही युद्ध कर, तुझे निश्चित विजय मिलेगी।
सौजन्य : भंवरलाल