नई दिल्ली। प्रख्यात चिंतक एवं सामाजिक कार्यकर्ता केएन गोविंदाचार्य ने इस बात का खंडन किया है कि आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सरकार से मांफी मांगी थी। उन्होंने कहा है कि आपातकाल में संघ के कार्यकर्ताओं को ही सर्वाधिक निशाना बनाया गया था।
दिल्ली जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन की ओर से आयोजित आपातकाल और पत्रकारिता विषय पर राजधानी में शनिवार को आयोजित चर्चा में सत्तर के दशक के छात्र आंदोलन में गहराई से जुड़े और जून 1975 में लागू आपातकाल में घोषित 19 माह के आपातकाल की मार झेलने वाले गोविंदाचार्य और जाने माने पत्रकार एवं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के अध्यक्ष रामबहादुर राय ने लोकतांत्रिक भारत के उस दौर के अपने कुछ अनुभव और जानकारी रखी।
इस कार्यक्रम में दो सौ से अधिक पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने भाग लिया जिनमें वरिष्ठ पत्रकार, संपादक एवं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र, वर्तमान कुलपति जगदीश उपासने, वरिष्ठ पत्रकार हेमंत विश्नोई, नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट्स-इंडिया (एनूयूजे-आई) के अध्यक्ष अशोक मलिक, महासचिव मनोज वर्मा,उपाध्यक्ष मनोज मिश्र, कोषाध्यक्ष राकेश आर्य, एनयूजे के वरिष्ठ नेता राजेंद्र प्रभु और केएन गुप्ता, डीजीए अध्यक्ष मनोहर सिंह, महासचिव डा प्रमोद कुमार और डीजेए के पूर्व अध्यक्ष अनिल पांडे आदि शामिल थे।
‘देश में ‘आज क्या आपातकाल के लक्षण हैं’ इस सवाल को वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने इसे ‘नादान लोगों का प्रलाप’ कहकर प्रतिप्रश्न किया कि क्या वर्तमान सरकार ने लोगों के जीने के अधिकार को समाप्त कर दिया है? क्या लोकतांत्रिक अधिकारों को समाप्त कर दिया है? क्या बोलने की आजादी समाप्त कर दी गई है?
गोविंदाचार्य ने कहा कि आपातकाल के दौरान देशभर में गिरफ्तार किए गए 70 प्रतिशत संघ के और 30 प्रतिशत समाजवादी और अन्य पृष्ठ भूमि के लोग थे। उस समय ऐसे लोगों पर बहुत जुर्म किए गए और उनमें से बहुत से लोग जानते भी नहीं थे कि उन्हें क्यों पकड़ा गया था।
उन्होंने कहा कि संघ के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस ‘पितास्वरूप संरक्षक’ थे। इसके नाते उन्होंने निरपराध लोगों और उनके परिवारों की चिंता की थी। आलोचकों का यह कहना सत्य नहीं है कि संघ ने आपातकाल में सरकार से समझौता कर लिया था और उसके लोग 20 सूत्री कार्यक्रम पर हस्ताक्षर करके छूटे।
उन्होंने कहा कि इससे उलट सत्ता की तरफ से संघ के सामने एक प्रस्ताव आया कि आपातकाल के बाद होने वाले चुनाव में वह तटस्थ रहे तो संगठन पर से पाबंदी हटा ली जाएंगी जिसे बालासाहब देवरस ने अस्वीकार कर दिया था।
राय ने कहा कि उनकी राय में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण(जेपी) के आंदोलन को दबाने के लिए आपातकाल नहीं लगाया था, बल्कि बल्कि वह इस बात से डरी हुई थीं कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनाव में भष्ट्र तरीके अपनाने के आरोप में उनके खिलाफ दायर याचिका मंजूर कर ली तो कांग्रेस में उनके खिलाफ विद्रोह होगा और उनका प्रधानमंत्री बने रहना मुश्किल हो जाएगा।
उन्होंने कहा कि कुछ लोग कह रहे हैं कि आज भी देश में आपातकाल जैसी स्थिति है। ये लोग नादान हैं। उन्होंने आपातकाल के दौरान सरकार बनाम शिवकांत शुक्ला मामले में जबलपुर उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि उस समय सरकार ने लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार छीन लिए थे। क्या आज लोकतांत्रिक अधिकारों को समाप्त कर दिया है? क्या बोलने की आजादी समाप्त कर दी गई है? क्या ऐसा है?
उन्होंने कहा कि न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को अदालत में छह घंटे खड़ा कराकर गवाही ली थी, जिससे वह घबराई हुई थीं। उसके बाद 12 जून 1975 को फैसला आने के बाद उसके खिलाफ राजधानी में गोलमेथी चैक पर कांग्रेस की रैलियां शुरू हो गई थीं। 20 जून को उच्चतम न्यायालय में अवकाशकालीन पीठ में अपील दायर की गई थी। 24 जून को न्यायाधीश वीआर कृष्ण अय्यर ने उच्च न्यायालय के निर्णय पर स्थगन तो दे दिया पर उस निर्णय को बनाए रखा।
राय ने कहा कि उसी दिन लोक संघर्ष समिति ने आंदोलन की घोषणा कर दी थी और 25 जून की रात को ही मंत्रिमंडल की स्वीकृति के बिना राष्ट्रपति फकरुद्दीन अहमद से आपातकाल के पत्र पर हस्ताक्षर कराए गए।
आपातकाल की घोषणा से पहले ही जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया और उनके साथ संसद मार्ग थाने गए कांग्रेस नेता चंद्रशेखर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। अगले दिन सुबह ही मंत्रियों को नींद से जगाकर छह बजे मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर पांच मिनट में आपातकाल की मंजूरी ली गई और प्रधानमंत्री ने आठ बजे आकाशवाणी पर आपातकाल की घोषणा की और लोगों के मूलभूत अधिकार छीन लिए।
गोविंदाचार्य ने कहा कि बिहार आंदोलन में उनकी सक्रियता को लेकर उनकी संघ प्रमुख से शिकायत की गई थी। उस पर उनकी एकतरह से बालासाहब देवरस के सामने पेशी हुई थी। वहां उनसे पूछा गया कि इस आंदोलन से ‘क्या हासिल करना चाहते हो।’ संघ प्रमुख ने कहा था कि बिना तैयारी के अखाड़े में उतरने पर अनपेक्षित संकट आएंगे और गिरफ्तारी का खतरा उठाना होगा। आरएसएस प्रमुख ने उन्हें कहा था कि यदि इस आंदोलन से सामाजिक दंड-शक्ति निकले तो ही आंदोलन की सर्थकता है।
गोविंदाचार्य ने कहा कि आपातकाल के बाद सरकार बदल तो गई पर आंदोलन से बुनियादी बदलाव का लक्ष्य हासिल नहीं हो सका। उन्होंने कहा कि आज नए प्रयोग और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार स्थानीय जन आंदोलनों की जरूरत है। सामान्य जन की भागीदारी से ही बुनियादी बदलाव आ सकते हैं।
उन्होंने कहा कि सत्ता का अपना स्वभाव है, वैशिष्ट और उसके अपने विकार होते हैं। आज चुनौती है कि सत्ता में एकाधिकार,सर्वाधिकार और भ्रष्टाचार जैसे विकारों को दूर करने की मुहिम किस तरह खड़ी हो ताकि इसके विशाल तंत्र और संसाधन जैसे वैशिष्ट का अधिक श्रेष्ठ उपयोग हो सके।
अच्युतानंद मिश्र ने कहा कि आपातकाल ने भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल दिया। उस समय जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे संपूर्ण क्रांति आंदोलन की एक बड़ी सफलता यह रही कि उसमें हिंसा नहीं हुई। उपासने ने भी आपातकाल के दौरान की आपबीती सुनाई और सरकार के विरोधी समझे जाने वाले पत्रकारों व समाचार पत्र-पत्रिकाओं पर उस समय के शासन-प्रशासन के दमन के कुछ दृष्टांत सुनाए।
उन्होंने कहा कि आपातकाल की पत्रकारिता पर माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय शोध शुरू करेगा। इस अवसर पर उपासने को दिल्ली पत्रकार संघ ने सम्मानित भी किया। वक्ताओं ने आपातकाल के समय इंडियन एक्सप्रेस, मदरलैंड,युगधर्म और तरुण भारत जैसे कई अखबारों पर कार्रवाई और समाचारों की सेंसरशिप को भी याद किया। गोविंदाचार्य ने कहा कि आज भी अखबार में लिखने वालों (पत्रकारों) की आजादी की रक्षा की जरूरत है।