सबगुरु न्यूज। जीव व जगत को सदा सुखी और समृद्ध बनाने के लिए प्रकृति खुद ऋतुओं का श्रृंगार कर धरा पर उतरती है और अमर संदेश देती है कि हे मानव तू सदा जटिल मत बन और सदा मेरे गुण धर्म के अनुसार ही व्यवहार कर।
ऐसा करने से तू सदा सुखी और समृद्ध बना रहेगा। मेरे धर्म मे ना तो जटिलताओं के झमेले है और ना ही कुरीतियों की फसलें के खेत। जटिलताओं की जमीन पर सदा कुरीतियों के ही बीज बोये जाते हैं और उन बीजों से अंधविश्वास के फल ही पैदा होते हैं।
मेरे धर्म में ना तो पूजा है ना उपासना और ना ही कोई जटिल व सरल कर्म कांड। मैं तो केवल अपने ऊर्जा चक्र को बदलती हूं और मानव को उसी के अनुसार व्यवहार करने पर मजबूर कर देती हूं।
जटिलताओं से सरलता की ओर ले जाना ही मेरा धर्म है। सभी को ऋतु अनुसार फल देना ही मेरा कर्म है। मैं भूत, वर्तमान और भविष्य नहीं। मै सदा ही अविनाशी हू और मेरे काल चक्र में आगे बढकर अपने कार्य को अंजाम देती है।
लाभ- हानि, पाप-पुण्य, जीवन-मृत्यु, पुनर्जन्म-मोक्ष, मान्यताएं विश्वास इन सब परिभाषाओं से मैं सदा दूर ओर बहुत दूर रहती हू क्योंकि ये सब सभ्यता और संस्कृति में मानव के द्वारा बनाए गए विषय हैं और मानव ही अकारण इनमें उलझा रहता है और जीवन को जटिलताओं की ओर ले जाता है और कुरीतियों में पडकर जीवन को व्यर्थ ही गंवा देता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव प्रकृति के बदलती ऋतुएं मानव को यह अमर संदेश देती है कि हे मानव तू मेरे गुण धर्म के अनुसार अपने आप को ढाल और बदलती ऊर्जा से शरीर के व्यवहारों को नियंत्रित कर तथा अपनी आन्तरिक ऊर्जा को मौसम की बीमारियों से रक्षा कर। तेरा जीवन सुखी और समृद्ध हो जाएगा।
इसलिए हे मानव तू प्रकृति से उलझ मत और जीवन की शाश्वत धारा में बहता चल। मूल्यों के विपरीत मिथ्या के गलियारों में केवल भटकन ही मिलतीं है और सत्य जहां बौना हो जाता है और झूठ की परछाईयां वहां बडी होती है।
सौजन्य : भंवरलाल