नई दिल्ली। सुप्रीमकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध करार दिए जाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर मंगलवार को फैसला सुरक्षित रख लिया।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने विभिन्न पक्षकारों की दलीलें सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया। संविधान पीठ में न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायाधीश रोहिंगटन एफ नरीमन, न्यायाधीश ए एम खानविलकर और न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा भी शामिल हैं।
न्यायालय ने सभी पक्षकारों से कहा कि वे अपनी लिखित दलीलें 20 जुलाई तक उसके समक्ष पेश करें। इससे पहले दो ईसाई संगठनों की ओर से पेश वकील मनोज जॉर्ज ने कहा कि अप्राकृतिक यौन संबंधों को अपराध घोषित करने से संबंधित भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 खत्म कर देने से पुरुष और औरत दोनों के वैवाहिक अधिकारों पर असर होगा।
न्यायाधीश नरीमन ने सुनवाई के दौरान कहा कि न्यायालय का यह मौलिक कर्तव्य है कि वह असंवैधानिक प्रावधान को खत्म करे, क्योंकि सरकार वोट की वजह से ऐसा नहीं करती है।
न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने इस बात पर असहमति जताई कि धारा 377 खत्म करने से एड्स जैसी बीमारियां बढ़ सकती हैं। उन्होंने कहा कि अगर ऐसे संबंधों को मान्यता मिलेगी तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी जागरुकता आएगी।
पिछली सुनवाई के दौरान न्यायाधीश मिश्रा ने कहा था कि वह बहुमत की नैतिकता का पालन नहीं करते बल्कि संवैधानिक नैतिकता का पालन करते हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने कहा था कि अब समय आ गया है कि न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘अंतरंगता के अधिकार’ को जीवन जीने के अधिकार का हिस्सा घोषित कर देना चाहिए।
उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की एक अदालत के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा था कि निजता किसी भी व्यक्ति को अपनी जिंदगी में किसी के साथ भी नजदीकी रिश्ते कायम करने का अधिकार देती है।