सबगुरु न्यूज। शरीर रूपी दुनिया पर मन हुकूमत करता है और शरीर की मालिक आत्मा शक्तिशाली होने के बाद भी मन की गुलामी मे जकड़ी रहती है। यदि आत्मा आजाद होती तो सब आत्मा की आवाज पर ही अपने कर्म को अंजान देते और व्यवस्थाओं मे बुराइयां उत्पन्न नहीं होती।
मन नियंत्रण से बाहर उस डकैत की तरह होता है जो खुले आम लूट खसौट करता है और खिलाफत करने वाले को मिटा देता हैं। मन की बादशाहत को झेलती हुई आत्मा सदा ग़ुलाम ही बनी रहती है। अगर ऐसा ना होता है तो धर्म, दर्शन और विज्ञान ही दुनिया पर हुकूमत चलाते तथा मन कभी भी किसी को गुलाम बनाने का खेल नहीं खेलता।
मन को भी मजबूर होता है पडता है, बादशाहत चलाने के लिए। मन चौदह मनोवृत्तियां की शक्ति के साथ इस शरीर में प्रकट होता है। चन्द्रमा की कलाओं की तरह मन चौहदवीं कला तक व्यवहार कर हर पन्द्रहवीं कला पर अपना पूर्ण रूप दिखा देता हैं। मन जब सकारात्मक सोच से कलाएं बदलता है तो पन्द्रहवीं कला पर पूर्ण प्रकाशित होकर कल्याणकारी पूर्णिमा के चांद की तरह बन जाता है और आत्मा भी गुलामी मे राहत की महसूस करती है।
मन की सोच जब नकारात्मक होती है तो उसकी कला चन्द्रमा की तरह घटती हुईं काली अमावस्या की ओर ले जाती है जहां आत्मा पर मन का आपातकाल छा जाता है और शरीर की सारी व्यवस्था अस्त व्यस्त हो जाती है। इस प्रकार मन की बादशाहत का साम्राज्य तो मिट जाता है और नया शरीर ओर नई आत्मा प्रकट होकर अपने विकास के लिए अतीत के पन्नों को पलट पलट कर देखती ही रहती है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव, शरीर में बैठी दिल को धड़काने वाली आत्मा पर मन बिना अपनी हैसियत के ही राज करता है, इस कारण मन आत्मा की धडकनों से भी ज्यादा गतिशील और कल्पनाशील होता है तथा शरीर को भविष्य के हंसीन सपनों की दुनिया में ले जाकर गुमराह कर देता है और आत्मा इस खेल को देख मौन हो जाती है। हकीकत जानकर भी मन की गुलामी से नहीं निकल पाती।
इसलिए हे मानव तू भविष्य के हंसीन सपनों की दुनिया में मत डूब और मन की गुलामी से किनारा कर तथा इस शरीर में बैठी धड़कने वाली आत्मा की बात सुनेगा तो तू सदा ही आजादी के कल्याणकारी झंडे के तले स्वतंत्र हो कर खुशहाल बन जाएगा।
सौजन्य : भंवरलाल