अजमेर। जीवन में पहले भक्ति अपनाएं, काम और क्रोध को अपने भीतर से निकाल बाहर करें। भक्ति भी ऐसी करें जों निर्भाव यानी बिना भय वाली हो। भगवान के प्रति भक्ति हदय में बसा लेंगे तो काम और क्रोध खुद ही मिट जाएंगे। मन में बसे विकार अपनी जगह छोड भागने लगेंगे। भक्ति ही भगवान से मिलन का सहज मार्ग है। इसलिए मांगनी है तो पहले भक्ति मांगना।
तोपदडा स्थित गढवाल पैलेज में मंगलवार को दूसरे दिन श्रीमद्भागवत कथा का वाचन करते हुए मंहत कैलाश महाराज ने यह बात कही। उन्होंने कहा कि एक बार मन में प्रभु की लगन लग गई तो फिर जीवन में मंगल ही मंगल है। परमात्मा से जुडे बिना मंगल नहीं हो सकता। उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि प्रखंड ज्ञानी और धर्म शास्त्रों के रचियता ज्ञान के मर्मज्ञ वेदव्यास ने खूब रचनाएं लिख लीं लेकिन उन्हें संतोष नहीं मिला। मन की बैचेनी खत्म नहीं हो रही थी।
अपनी इस बैचेनी के बारे में उन्होंने नारदजी से चर्चा की और बोले हे देव ऋषि ऐसा क्यों हो रहा है। तब नारदजी ने उन्होंने कहा कि आपने बहुत से ज्ञान ग्रंथ लिख डाले हैं लेकिन प्रभु भक्ति और प्रभु के बारे में तो अब तक कुछ भी नहीं लिखा। जब प्रभु भक्ति ही नहीं की तो संतोष कैसे मिल सकता है। नारदजी के बताए मार्ग ने उनकी आंखें खोल दी और श्रीमदभागवत की रचना की।
आज इसी श्रीमदभागवत से बरसने वाले ज्ञान रस और इसमें निहित प्रभु भक्ति के मार्ग से असंख्य प्राणी मात्र का उद्धार हो रहा है। श्रीमदभागवत ज्ञान का भंडार है, ज्ञान हमेशा शीतल होता है, इससे नम्रता आती है और जीव प्रभु का प्रिय हो जाता है। महाराज ने महाभारत कथा में वर्णित अर्जुन, कौरव और पांडव के प्रसंग का वर्णन करते हुए कहा कि तीन वस्तुओं का कभी अंत नहीं होता। पहला कर्मफल, दूसरा ज्ञान और तीसरा आत्मा। कर्म वह है जो हम करते हैं इस फल हमें ठीक वैसा ही मिलता है जैसा हम करते हैं। ज्ञान ऐसी चीज है जो हमेशा साथ रहता है और आत्मा अजर अमर है।
हमें सबसे पहले ज्ञान हासिल करना चाहिए। यह ज्ञान संतों की संगत से मिलता है। ज्ञान से निर्मलता आती है। निर्मलता आ जाने पर हमारे कर्म सुधरते हैं हम गलत काम नहीं करते और संसार में रहकर प्रभु के प्रिय हो जाते हैं।