सबगुरु न्यूज। प्रकृति एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में अपना कार्य करती है और अपना संतुलन स्वयं बनाए रखती है। उसे रोका नहीं जा सकता है और ना ही सलाह दी जा सकती है। दिन-रात, सर्दी, गर्मी, वर्षा, आंधी, तूफान, भूकंप, ज्वालामुखी, अतिवृटि, अनावृष्टि, बर्फबारी, ओलावृष्टि उसकी अपनी विरासत होती है। वह अपने प्राकृतिक न्याय सिद्धांत के अनुसार ही कार्य करती है। भले ही अपार जन धन की क्षति हो जाए लेकिन वह अपने सिद्धांतों से भटकती नहीं है।
प्रकृति के प्रकोपों को आज तक कोई भी ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, चिंतन, धर्म, जादू, टोना, टोटका, कर्म कांड, विश्वास, आस्था, श्रद्धा व विकसित विज्ञान नहीं रोक पाया। अगर ऐसा होता तो विश्व में कभी भी अपार धन जन की क्षति नहीं होती और ना ही अकाल व बाढ में सभ्यता तथा संस्कृति जमीदोज होती। यही प्रकृति के न्याय सिद्धांत हैं जो समझौता नहीं करते है तथा अपनी न्याय संस्कृति को बनाए रखते हैं।
जहां रोशनियों का साम्राज्य हो वहां पर चिराग जलाकर राह नहीं दिखाई जाती है। यदि कोई रोशनियों को चिराग दिखाने की कवायद करता है तो वह उस अंधे धृतराष्ट्र की तरह होता है जो सब कुछ फैसले अपने पुत्र के हित में ही चाहता है और नैसर्गिक न्याय सिद्धांत को कुचलने के हर प्रयास करता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव चिरागों का अस्तित्व तो केवल अंधेरों में ही होता है। अंधेरों को ही चिराग दिशा दिखा सकता है उजालों को नहीं। चिराग वहीं जलाए जाते हैं जहां रोशनी पहुंच नहीं पाती। जमीनी हकीकत में जगत में कुछ ऐसे अंधेरे होते हैं वहां पर चिराग जलाने की रीत नहीं निभाई जाती है।
जहां सिसकती तडपती आवाजे और लाज बचाती हुई रक्षा की भीख मांगती अबलाएं, भारी गरीबी के करोडों भूखे नंगे काफिले, अत्याचारों को सहते दुर्बल बेवजह मौत के घाट उतारे व्यक्ति जिन पर चिरागों की रोशनियां नहीं पड़ती और उन्हें नजर अंदाज करके, रोशनियों की उस भीड को चिराग दिखाए जाते हैं जो खुद रोशन होते हैं। इन मानवीय धर्म के मूल्यों पर हुंकार नहीं भरी जाती। धर्म को बचाने से पहले इस मानव धर्म को ही बचाना जरूरी होता है। इन्हें रोशन करने के चिराग जलाना जरूरी होता है।
इसलिए हे मानव तू रोशनियों को चिराग दिखाने की कवायद मत कर, इससे मानव धर्म नहीं बचेगा ना ही बचेगी सभ्यता और संस्कृति। क्योंकि सभ्यता और संस्कृति जिन अंधेरों में भटक रही है तू वहीं चिराग जला और मानव धर्म को बचा।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर