नई दिल्ली। रक्षा मंत्रालय ने मोदी सरकार के राफेल विमान सौदे को महंगा करार देने संबंधी एक लेख को तथ्यात्मक रूप से गलत बताते हुए शुक्रवार को दोहराया कि यह कांग्रेस सरकार के समय किये गये सौदे से सस्ता और बेहतर शर्तों पर आधारित है। मंत्रालय ने कहा है कि आज प्रकाशित इस लेख में कोई नई दलील या प्रमाण भी नहीं दिया गया है।
एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित लेख में कहा गया है कि मोदी सरकार के 36 विमान खरीदने के निर्णय से इस सौदे में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की तुलना में प्रति विमान की कीमत 41 फीसदी बढ गई।
रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता कर्नल अमन आनंद ने इस लेख के संदर्भ में कहा है कि यह तथ्यात्मक रूप से गलत है और इसमें कोई नया प्रमाण या दलील नहीं दी गई है। सरकार ने इस सौदे के बारे में विभिन्न मंचों से हर सवाल का जवाब दिया है और रक्षा मंत्री ने हाल ही में लोकसभा में इस मुद्दे पर हुई चर्चा में भी इस संबंध में खुलकर सरकार का पक्ष रखा है।
प्रवक्ता ने कहा है कि लेख कही गई यह बात सही है कि यदि नौ साल की अवधि में कीमत में बढोतरी को ध्यान में रखा जाए तो बेसिक विमान की कीमत के मामले में 2016 का सौदा 2007 की तुलना में बेहतर है। उन्होंने कहा कि इसके बावजूद राजनीतिक दल और मीडिया रिपोर्टों में बेसिक विमान की 2007 की कीमत और 2015 के हथियारों से लैस विमान की कीमत की तुलना की जाती है।
कर्नल आनंद ने कहा है कि यह हैरानी की बात है कि लेख के शीर्षक में लेखक ने 2007 के सौदे की तुलना 2016 के सौदे से करते हुए इस दौरान कीमत में होने वाली बढोतरी को नजरंदाज कर दिया है। उन्होंने कहा कि इसी लेख में बाद में कहा गया है कि यदि समय के साथ हुई बढोतरी को ध्यान में रखा जाए तो कीमत 14.2 फीसदी अधिक है लेकिन 41.4 फीसदी अधिक होने का आंकड़ा ज्यादा आकर्षित करता है। लेखक ने 2016 के सौदे की बेहतर कीमत का भी उल्लेख नहीं किया है जबकि रक्षा मंत्री ने संसद में इसकी जानकारी दी थी।
उन्होंने कहा कि इस सौदे की कीमत संबंधी जानकारी गोपनीय समझौते के तहत है और यह उच्चतम न्यायालय को सीलबंद लिफाफे में बताई गई है। उच्चतम न्यायालय को इस सौदे में कुछ भी अनुचित नहीं मिला है और उसने सौदे की जांच कराने संबंधी याचिकाकर्ताओं की याचिका खारिज कर दी हैं। साथ ही नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) को राफेल सौदे से संबंधित सभी फाइलें दी गई हैं और उसकी रिपोर्ट का इंतजार किया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि वायु सेना की जरूरतों को देखते हुए इन विमानों में विशेष प्रणालियों को जोड़ा गया और ये प्रणाली 2007 के सौदे में भी थी और ये 2016 के सौदे का भी हिस्सा है। इन प्रणालियों की कीमत 007 के सौदे में फिक्स्ड बेस पर थी जबकि 2016 में इन पर सौदेबाजी की गई।
यद्धपि 2007 के उस सौदे (जो हुआ ही नहीं) की तुलना 2016 के 36 विमानों की खरीद से करना भ्रम फैलाने जैसा है। लेखक ने वायु सेना की जरूरत संबंधी विशेष प्रणालियों की कीमत 1.4 अरब यूरो बताते हुए भी समय के साथ कीमत में हुई बढोतरी पर ध्यान नहीं दिया है।
उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने सीधे फ्रांस सरकार के साथ सौदा किया इसलिए विशेष प्रणालियों की कीमत फिक्स्ड के बजाय लचीली दल पर तय की जा सकी। इससे विमानों की आपूर्ति के मामले में काफी फायदा होगा।
प्रवक्ता ने कहा कि दो देशों के बीच बातचीत पर आधारित सौदा व्यापक है और इसका मूल्यांकन करते समय निहित स्वार्थों को ध्यान में रखकर किसी बात पर ध्यान दिया जाता है और किसी को नजरंदाज किया जाना संदेह पैदा करता है। सरकार ने यह बात पहले भी कही है और उच्चतम न्यायालय ने भी इसे माना है।
उन्होंने कहा कि सौदे के संबंध में बात करने वाली समिति में असहमति से जुडे सवालों का रक्षा मंत्री ने संसद में जवाब दिया है। इस तरह के मामलों में सभी विचारों को स्वतंत्रता से रखा जाता है और सभी के विचारों को सुनने के बाद निर्णय लिया जाता है। इस सौदे पर भी निर्णय संबंधित मंत्रालयों से विचार विमर्श के आधार पर लिया गया।
प्रवक्ता ने कहा कि बेंचमार्क और यूरोफाइटर में 20 प्रतिशत की छूट का मुद्दा आपस में जुडे हैं। कांग्रेस सरकार ने भी 2012 में यूरोफाइटर से 20 फीसदी की छूट लेने से इंकार कर दिया था क्योंकि यह प्रक्रिया का उल्लंघन होता। यदि मोदी सरकार इस छूट को स्वीकार करती तो उस पर नियमों का उल्लंघन करने का आरोप लगता।
उन्होंने कहा कि बेहतर यही है कि 2012 से चली आ रही कॉरपोरेट लड़ाई के जाल में न फंसा जाए क्योंकि इससे वायु सेना की क्षमता के साथ समझौता किया जा रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इस विवाद पर विराम लगाया जाना चाहिए।