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Sufi Saints Contribution in music-सूफी सन्तों का संगीत (समा) में योगदान - Sabguru News
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सूफी सन्तों का संगीत (समा) में योगदान

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सूफी सन्तों का संगीत (समा) में योगदान

-डॉ. माहनूर हसन जुबैरी
सूफी संगीत में परमात्मा, हजरत मोहम्मद, हजरत अली की प्रशंसा और उनके प्रति आध्यात्मक प्रेम का वर्णन किया जाता है। अरबी, फारसी तथा हिन्दी लयों के सम्मिश्रण से सूफियों ने अनेक रागों का आविष्कार किया। सूफी संगीत में ‘कौल’ का महत्व है।

चिश्ती सम्प्रदाय में ‘समा’ संगी का विशेष महत्व है। सूफी सन्तों के अनुसार समा आत्मा का भोजन है और वह ईश्वर प्राप्ति में भी सहायक है। सूफी संगीत में पीरो मुरशद (आध्यात्मिक गुरु) की प्रशंसा, उनके प्रेम (इश्क) का वर्णन किया गया है।

सूफी परम्परा में कव्वाली का महत्व है, इसके माध्यम से सूफी अपने गुरु (पीरों) के रंग गाया जाता है। सूफी संत देश-विदेश में ढूंढते फिरे पर उनको अपने गुरु (पीरो मुरशद) का ही रंग भाया। वे अपने आपको उन्हीं के रंग में रंगना चाहते हैं। वह रंग इतना पक्का और गहरा है कि चुनरी फट जाये पर रंग फीका न पड़े।

सूफी सन्तों की दरगाहों में उर्स के अवसर पर रंग गाया जाता है। जिस सन्त का उर्स होता है उनकी दरगाह पर उन्हीं के नामों के साथ रंग गाया जाता है। चिश्ती परम्परा के सन्त ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती का संगीत में विशेष योगदान रहा है। भारत में कव्वाली के आविष्कारक अजमेर के ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती ही थे। भारत के सांस्कृतिक वैभव में अजमेर अंचल का संगीतिक योगदान विशेष महत्वपूर्ण है।

ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती अजमेर ने अपने कव्वाल शिष्यों को अजमेर की भाषा तथा यहां के परम्परागत गीतों के छन्द एवं लोकधुनों को आत्मसात करने के लिए प्रेरित किया। यही कारण है कि चिश्ती परम्परा में जिन गीत शैलियों का समावेश है, उनमें प्रादेशिक लोकधुनों का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है।

चिश्ती परम्परा ने लोकभाषा सीखी, जनता के स्तर पर उतरकर सरल शब्दों में अपनी बात कही व भारत के लोक जीवन में रमे, इन्होंने यहीं की कई धुनों में अपने गीत गाये। सूफी विचारों को लोकभाषा में व्यक्त करने वाला भक्त भारतीय गायक भी शेख मुईनुद्दीन हसन चिश्ती अजमेर को सुलभ हो गये, उन गायकों का गाना सुनने के लिए भीड़ इकट्ठी होने लगी। शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी समा प्रेमी थे, उनका तो स्वर्गवास ही कव्वाली सुनते-सुनते हुआ था। कव्वाल एक शेर गा रहे थे, शेर इस प्रकार है :-

कुश्तागने खंजरा लस्लीमरा-हरजमा अब गैब जाने दीगरअस्त।

अर्थात जो ईश्वर के प्रति आत्म-समर्पण और विनय की तलवार से भस्मसात् हो चुकते हैं, उन्हें प्रतिपक्ष परोक्ष, से एक जीवन मिलता रहता है। ख्वाजा बख्तियार काकी चार दिन तक निरन्तर यह शेर सुनते रहे थे। इस मग्न अवस्था में ही उनका स्वर्गवास हुआ। शेख फरीदुद्दीन गंजशकर भी संगीतानुरागी थे। हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया तो संगीत मर्मज्ञ थे।

ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के खलीफा शेख नसीरुद्दीन चिराग देहलवी उनके खलीफा ख्वाजा बदा नवाज गैसूदराज भी परम संगीतानुरागी थे। शेख निजामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरो ने उनके दीक्ष प्राप्त करने के पश्चात आत्म-विभोर होकर जो कुछ गाया वह आज रंग के नाम से अभिहित किया जाता है। शुरू के बोल इस प्रकार से हैं :-

‘आज रंग है एरी माँ रंग है,
मोरे महबूब के घर रंग है। आज रंग है एरी माँ रंग है। मैं पीर पाया निजामुद्दीन औलिया,
आज रंग है ए माँ।’

अमीर खुसरो के नाम से सम्बन्धित अनेक राग हैं। इसके अतिरिक्त कौल, कुलवानह, कव्वाली, तराना जो आज भी लोकप्रिय राग है। ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती ने लोकभाषा का प्रयोग किया है। ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती से संबंधित गीतों की परम्परा एक ओर फारसी काव्य परम्परा से जुड़ती है तो दूसरी ओर विशुद्ध लोकजीवन की गीत शैली से।

आपसे संबंधित लोक गीत जन जीवन को प्रभावित करते हैं। उनसे संबंधित लोकगीतों में उनकी दयालुता एवं कृपालुता का तथा उनके चमत्कारों का वर्णन किया गया है। ख्वाजा साहब के उर्स के दौरान महफिल खाने में देश के मशहूर कव्वाल इतने मसरूर (तल्लीन) होकर कव्वाली पेश करते हैं। सबसे पहले दरगाह शरीफ के शाही कव्वाल ब्रजभाषा में बनड़ा पेश करते हैं जिसके बोल निम्न हैं :-

‘ख्वाजा मुईनुद्दीन बनड़ा, मुख से घूंघट खोल।’

परम्परा के अनुसार शाही कव्वाल अमीर खुसरो का ब्रजभाषा में यह गीत भी प्रस्तुत करते हैं :-

‘कागा सब तन खाईयो, चुन-चुन खईयो मास, दो नयना मत खाईरो,
पीया देखन की आस, कागा नेयन निकार के, ले जा पी के द्वार पहले दरस दिखाये के,
पीछे ली जो खाये।’

ख्वाजा साहब के उर्स के दौरान महफिलखाने में अमीर खुसरो का निम्न गीत प्रस्तुत करते हैं :-

‘छाप तिलकसब छीनी रे ख्वाजा ने मौसे नयना मिलाय के, प्रेम भट्टी की मदवा पिलायके मतवाली कर दीनी रे मौसे नैना मिलायके,

हरी-हरी चूड़ियां, गोरी-गोरी बईयां, हथवा पकड़ हट कीन्हीं रे, मौसे नयना मिलायके,

खुसरो निजाम के बलि-बलि जइए, मोहे सुहागन कीन्हीं रे मौसे नयना मिलायके।’

महफिलखाने में गाई हुई शुद्ध हिन्दी की ये कव्वालियां काफी प्रसिद्ध हुईं :-

‘कृपा करो महाराज मुईनुद्दीन, कृपा करो महाराज, चाहो तो दर-दर भीख मंगवाओ, चाहो धरो सरताज मुईनुद्दीन, तुमरे हाथ मोरी लाज मुईनुद्दीन।’

एक विशेष लय में ढोलक की ताल पर प्राचीन समय से आज तक इसी धुन में गाया जाता है, जिसको बधावा कहा जाता है और अक्सर उर्स के दिनों में रात भर महफिल खाने में होने वाली कव्वालियां के बाद ढोल की थाप पर विशेष समूह स्वर में गाया जाता है जिसके बोल निम्न हैं :-

‘ख्वाजा मुईनुद्दीन बनड़ा, मुख से घूंघट खोल’

चिश्ती परम्परा के सूफी सन्त बसन्त पंचमी का त्यौहार बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं। सूफियों की दरगाहों पर हर वर्ष बसंत के अवसर पर सरसों के पीले फूलों के गढ़वे सूफियों के मजारों पर चढ़ाए जाते हैं। बसंत के अवसर पर अमीर खुसरो के गीत गाए जाते हैं। एक अन्य गीत इस प्रकार हैं –

सगन बिन फूल रही सरसो-अंबवा फूटे, टेसू फूले, कोयले बोले डार-डार और गौरी करत सिंगार-मलनियां गुंदवा ले आई अर सों। तरह-तरह के फूल लगाये-ले गुंदवा हाथों में आये, निजामुद्दीन के दरवज्जे पर, आवन कह गये अशक रंग, और बीत गये बरसों।

दरगाह में बसन्त उत्सव पर हाता-ए-नूर में गढ़वा दाखिल होने के समय शाही चौकी के कव्वाल ‘बसन्त’ गाते हैं जिसके शब्द निम्न हैं :-

‘ख्वाजा मुईनुद्दीन के घर आ जाती है बसन्त कहीं बन बना कहीं सज सजा, मुझ दे को आती है बसन्त, फूलों के गढ़वे हाथ ले गाना बजाना साथ ले, शाही खुशी और ऐश का सामन लाती है बसन्त। ख्वाजा मुईनुद्दीन के घर आती है बसन्त’

अमीर खुसरो ने ‘धमाल ख्वाजा मुईनुद्दीन और ख्वाजा कुतुबुद्दीन। शेखर फरीद शकरगंज सुल्तान मशायख नसीरउद्दीन औलिया हजरत ख्वाजा संग खेलिये धमाल।’ इस प्रकार से ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में बसन्त उत्सव मनाया जाता है जो सूफी सन्तों की समन्वयात्मक विचारधारा का प्रतीक है। अजमेर की दरगाह में ‘बसन्त’ व ‘रंग’ का प्रवेश ब्रज भाषा के गीतों का विभिन्न अवसरों पर गाया जाना सूफी सन्तों की देन है।

कौमी एकता और भाईचारे का प्रतीक अजमेर में ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह है। सूफी सन्तों ने जनता को सन्देश दिया कि सम्पूर्ण मानव जाति एक है। धर्म के नाम पर लड़ना कोरी मूर्खता है। प्रेम के प्रतीक इन सूफी सन्तों के विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक प्रभाव पड़े। अजमेर का उर्स मेला यहां की धार्मिक, अनेकता में एकता को प्रबल बनाता जा रहा है। साम्प्रदायिक एकता, धार्मिक सहिष्णुता, बन्धुत्व का भाव, स्थानीय जन जीवन की एक विशेषता बन गया है। मेले का धार्मिक ही नहीं, सामाजिक, अर्थिक, सांस्कृतिक, कलात्मक अ‍ैर राष्ट्रीय महत्व भी है।