सबगुरु न्यूज। पहली बार मानव ने जब जलती हुई आग को देखा होगा तो उसे आश्चर्य जरूर हुआ होगा। उसके नजदीक जाने पर उसे लगा कि इसकी तपन बर्दाश्त से बाहर है और वह दूर हटकर आग के खेल को देख रहा होगा। अंत में उसे समझ आ गई होगी कि आग जलाकर खाक कर देती है। इस जिज्ञासा में वह आग की संस्कृति को सीख गया और उसी के अनुसार अपना व्यवहार करने लगा। सीखने की इसी क्रिया ने उसे रंगों के ज्ञान की संस्कृति भी सीखा दी और वह होली जलाने से लेकिर रंग लगाने तक सब कुछ समझ गया।
सभ्यता और संस्कृति ने रंगों व आग की कहानियों को अपने रंगों में रंगना शुरू कर दिया और आग प्रकृति के एक देव की तरह स्थापित हो गई। खाने पीने से लेकर हवन और शव तथा गंदगी को जलाने लग गई। इसी संस्कृति ने जलती आग को होली का भी नाम दिया तो जलते हुए शव को चिता की आग का भी नाम दिया।
इसी संस्कृति ने फसलों के उत्पन्न धान को ‘होला’ नाम दिया तो और उसकी आहूति जिस अग्नि में दी गई उसका नाम होली पडा। इसी संस्कृति ने काम, क्रोध और मोह को तथा अपने शत्रु को बुराई का नाम दिया तथा उसे आग में जलाने या उसे समाप्त करने की संस्कृति को जन्म दिया।
देव और दानवों की संस्कृति के काल में प्रथम बार शिव ने कामदेव को भस्म कर इस दुनिया से अपने शत्रु का अंत कर पहली बार होली का दहन का शुभारंभ किया। पुराणों की संस्कृति में हिरण्यकषिपु की बहन होलिका को अग्नि स्नान करने का एक शोक बताया गया और हिरण्यकषिपु का पुत्र प्रह्लाद जो उसका शत्रु बना हुआ था उसे होलिका की गोद में बैठाकर होलिका को अग्नि स्नान करने को कहा गया।
इस खेल में होलिका अग्नि स्नान करने में पहली बार जल गई ओर प्रह्लाद बच गया। आस्था और श्रद्धा ने इसे भक्ति का चमत्कार बताया ओर होली जलने की परम्परा शुरू हुई।
द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने पांडवों के राजा युधिष्ठिर को राजनीति का उपदेश देकर समझाया कि राजन वर्ष में जनता को एक बार खुली छूट देनी चाहिए कि वह राजा और उसकी व्यवस्था के बारे में क्या विचार रखते हैं लेकिन उन्हें दंडित नहीं किया जाए। तब से होली मे बुरा ना मानो होली है उस परम्परा ने जन्म लिया।
हर तरह के रंगों की तरह जनता अपने रंगों के रूप बताने लगी और एक दिन की विदाई के रंग सब पर डालने लगीं। रंगों की दुनिया फिर बढती गई और बुराइयों के बाद या शुभ कर्म होने बाद के रंग गुलाल डालने लगीं।
आधुनिक काल में यही रंग गुलाल एक संस्कृति के रूप बन गए और होली व रंग गुलाल डालने तथा प्रेम, सदभावना और भाईचारे बनाए रखने के संदेश देने लगी पर स्वार्थ के रंगों ने होली के रंगों को भी रंगहीन बना डाला और उस पर अपने रंगों को चढ़ा डाला। होली कोई ओर जला रहा था तो स्वार्थ अपने रंग गुलाल डालने से ना चूका।
संत जन कहते हैं कि हे मानव, अपनी रचना प्रखर होने के कारण ही यह कुदरत प्रकृति कही जाती है और ऋतुओं का परिवर्तन करती हुईं जीव व जगत को अपने गुणों से रूबरू करवाती है। होली की सूचना बंसत ऋतु देती है और मीन व मेष राशि में भ्रमण करता हुआ सूरज अपनी गरमी फैलाकर शरद ऋतु को पूर्ण रूप से विदाई करता है। पेड़, पौधे और वनस्पति अपने अनुसार तरह तरह के रंगों के फूलों से पृथ्वी को सजा देते हैं।
बंसत की तेज हवाएं पेड़ से टकराकर पेड़ों के फूल पृथ्वी पर डालकर फूलों की होली मनाती है और जीव व जगत को सुखद मौसम की ओर ले जाती है। किसी को जलाने के लिए नहीं वरन व्यवस्था परिवर्तन के संकेत कुदरत देती है।
इसलिए हे मानव, तू बसंत के इस उत्सव का आनंद ले और ईर्ष्या, जलन और अनावश्यक क्रोध और दूसरों को हीन भावना से देखने की बुराइयों को जला तथा प्रेम के पक्के रंग से सबको रंग अन्यथा होली तो जलकर राख हो जाएगी और राख को स्वार्थ के रंग घोलने में रह जाएंगे।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर