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अजमेर : दीपदान, आतिशबाजी, रोशनी से झिलमिला उठा झलकारी बाई स्मारक - Sabguru News
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अजमेर : दीपदान, आतिशबाजी, रोशनी से झिलमिला उठा झलकारी बाई स्मारक

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अजमेर : दीपदान, आतिशबाजी, रोशनी से झिलमिला उठा झलकारी बाई स्मारक

अजमेर। वीरांगना झलकारी बाई की 189वीं जयंती की पूर्व संध्या पर गुरुवार देर शाम पंचशील नगर स्थित झलकारी बाई स्मारक रंग बिरंगी रोशनी से झिलमिलाता नजर आया। दीपकों की रोशनी और आतिशबाजी के बीच झलकारी बाई अमर रहे नारों की गूंज सुनाई पडती रही।

उद्योगपति एवं समाजसेवी हेमन्त भाटी के नेतृत्व में कोली समाज के गणमान्यजनों ने झलकारी बाई की 189वीं जयंती की पूर्व संध्या पर झलकारी बाई ​स्मारक पर आयोजित विशेष समारोह में शिरकत की। इस मौके पर झलकारी बाई की प्रतिमा स्थल को दीपदान के जरिए सजाया गया।

आतिशबाजी ने कार्यक्रम की रौनक बढा दी। रंग बिरंगी रोशनी से समूचा आकाश जगमगा उठा। दूर दराज तक आतिशबाजी का भव्य नजारा दिखाई दिया। भाटी ने बताया कि देश की आन-बान-शान के लिए प्राणों को न्यौछावर करने एवं समाज का मान बढ़ाने वाली वीरांगना झलकारी बाई की जयंती पर शुक्रवार को कोली समाज की ओर से विभिन्न आयोजन किए जाएंगे।

उन्होंने कहा कि जब भी भारतीय वीरांगनाओं का नाम लिया जाता है, उसमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम सबसे आगे आता है। हालांकि बहुत कम लोग ही जानते हैं कि देश में एक ऐसी भी वीरांगना रहीं हैं, जिसका नाम रानी लक्ष्मीबाई से भी पहले आता है। इस वीरांगना को भारत की दूसरी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है, वह झलकारी बाई थीं। 1857 की महान क्रांति में बलिदान होने वाली प्रथम भारतीय नारी कोली वीरांगना झलकारी बाई थी। उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए।

इस मौके पर मोहन राजोरिया, रजनीश चौहान, सोहनलाल भारती, रामबाबू शुभम, युवराज सिंह भाटी, ओशो भाटी, मनोज भाटी, द्रापदी कोली, कीर्ति हाडा, नवीन बैरवाल, सुनील लारा, उमेश बुंदेल, ऐश वर्मा,हरीश उमरवाल, महेन्द्र बुंदेल समेत बडी संख्या में लोग मौजूद रहे।

कौन थी झलकारी बाई

झलकारी बाई का जन्म बुंदेलखंड के एक गांव में 22 नवंबर को एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सदोवा (उर्फ मूलचंद कोली) और माता जमुनाबाई (उर्फ धनिया) था। झलकारी बचपन से ही साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। बचपन से ही झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देखरेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। वह एक वीर साहसी महिला थी।

झलकारी का विवाह झांसी की सेना में सिपाही रहे पूरन कोली नामक युवक के साथ हुआ। पूरे गांव वालों ने झलकारी बाई के विवाह में भरपूर सहयोग दिया। विवाह पश्चात वह पूरन के साथ झांसी आ गई। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, वह महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वह लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं, इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं।

सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजी सेना से रानी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी बाई ने बड़ी सूझबूझ, स्वामीभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था। रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अपने अंतिम समय अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया।

विवाह के बाद लक्ष्मीबाई की सेना में शामिल

उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से हुआ। पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गांव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गईं, क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं। रानी लक्ष्मीबाई झलकारी की बहादुरी के बारे में जानकर प्रभावित हुईं और दुर्गा सेना में शामिल कर लिया। झलकारी ने यहां अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और अन्य हथियारों का प्रशिक्षण लिया। और आगे चलकर झलकारी दुर्गा सेना की सेनापति बनीं।

जंगल में तेंदुए से लड़ी थीं

जंगल में तेंदुए से लड़ी थीं झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं के रखरखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थीं। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए से हो गई। झलकारी के पास उस वक्त हथियार के नाम पर सिर्फ एक कुल्हाड़ी थी। झलकारी ने उसी कुल्हाड़ी से तेंदुए को मार गिराया।

स्वाधीनता संग्राम में भूमिका

लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि, ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेनानायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गए और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया।

अप्रेल 1857 के दौरान लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किए कई हमलों को नाकाम कर दिया। रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं।

झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ में ले ली। झलकारी बाई खुद रानी लक्ष्मीबाई बनकर लडती रहीं और जनरल रोज की सेना उनके झांसे में आकर उन पर प्रहार करने में लगी रही। काफी देर बाद उन्हें पता चला की वह रानी लक्ष्मीबाई नही हैं।

झलकारी बाई की इस महानता को बुंदेलखंड में रानी लक्ष्मीबाई के बराबर सम्मान दिया जाता है। दलित के तौर पर उनकी महानता और हिम्मत ने उत्तर भारत में दलितों के जीवन पर काफी सकारात्मक प्रभाव डाला। उनकी मौत कैसे हुई थी, इतिहास में इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि ब्रिटिश सेना द्वारा झलकारी बाई को फांसी दे दी गई थी। वहीं कुछ जगहों पर जिक्र किया गया है कि वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुई थीं। कुछ जगहों पर अंग्रेजों द्वारा झलकारीबाई को तोप से उड़ाने का जिक्र किया गया है।

तोपची से किया था विवाह

झलकारी बाई का युद्ध कला के प्रति इतना प्रेम था कि उन्होंने शादी भी एक तोपची सैनिक पूरण सिंह से की थी। पूरण सिंह भी लक्ष्मीबाई के तोपखाने की रखवाली किया करते थे। पूरण सिंह ने झलकारी बाई की मुलाकात रानी लक्ष्मीबाई से कराई थी। उनकी युद्ध कला से प्रभावित होकर रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें अपनी सेना में शामिल कर लिया था। जिस युद्ध में झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई बनकर लड़ी थीं, उसी युद्ध में उनके पति शहीद हुए थे।