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आओ री चतुर नारी दीप जलाओ री... - Sabguru News
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आओ री चतुर नारी दीप जलाओ री…

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आओ री चतुर नारी दीप जलाओ री…

सबगुरु न्यूज। दीपक जब जलता है तो वह अंधेरों को दूर करता है और वहां की हकीकत को बयां करता है। जब दीपक सर्वत्र एक साथ जलते हैं तो सम्पूर्ण क्षेत्र रोशनियों से जगमगा जाता है और सम्पूर्ण क्षेत्र में क्या हो रहा है उसका भान हो जाता है। यह तो व्यक्ति की मंशा पर निर्भर करता है कि वह दीपक से त्योहार मना रहा है या रोशनियों का एक महापुंज बना कर निराशा से आशा की ओर ले जाने का संकेत देता है।

दीपकों की रोशनियों का यह महापुंज क्या किसी शुभ का संदेश दे रहा है या कोई बडी विजय हासिल करके कोई राजा पुनः अपने राज्य लोट कर आ रहा है। मक़सद जो भी हो आखिर दीपक की रोशनियों से अंधेरे ही दूर होते हैं व नकारात्मक माहौल से सकारात्मक माहौल की ओर ले जाते हैं।

अयोध्या में राजा दशरथ के घर जब राम ने जन्म लिया तो सभी नागरिकोंने मिलकर अयोध्या नगरी को दीपक की रोशनियों से जगमगा कर सभी को खुशी का संदेशा दिया और एक उमंग और उत्साह से नगर की सहेलियों गीत गा रही है और कह रही हैं कि…

आओ री चतुर नारी
दीप जलाओ री

ऊजाले जब फैलने लगते हैं तो वे अंधकार की हर हकीकत को उजागर कर देते हैं कि अंधेरों ने क्या सकारात्मक या नकारात्मक रचना की है। रचनाएं चाहे संगठित हों या असंगठित, उजाले उसकी हकीकत से रूबरू करवा देते हैं। यही हकीकत ज्ञान के मार्ग पर बढाकर चलना सीखा देतीं हैं और जीवन के हर क्षेत्रों में ज्ञान का प्रकाश डाल कर जीवन को सुखी और समृद्ध बना देती है।

जन्म एक अंधेरा होता है और वह ज्यो ज्यो जीवन के मार्ग पर बढ़ता है त्यो त्यो उसे बालपन, जवानी और बुढापे का ज्ञान होने लग जाता है। वह समझ जाता हू कि मैं सत्य नहीं हूं और मेरा रूप मृत्यु में बदल जाएगा। जन्म जीवन भर भौतिकता मे महानता को ढूंढता है और वह भौतिक उन्नति कर आने वाली पीढ़ियों को सांसारिक मोहमाया में डाल देता है।

जीवन के सामने खड़ी मृत्यु उसे ऊजाले की ओर लाने में लगी रहती है और उस जीवन को ज्ञान देती है कि तू जीवन की यात्रा का मुसाफिर है और ये जगत एक सराय की तरह तेरा ठहरने का अस्थायी निवास है। अतः इस सराय को बनाने की संस्कृति के अलावा इसमें ज्ञान का प्रकाश भी कर ताकि जन्म को जीवन के सफ़र में अंधकार का सामना ना करना पडे।

संत जन कहते हैं कि हे मानव, ऋतुओं के माध्यम से कुदरत यह बताने का प्रयास करती है कि बंसत ऋतु मदमस्त नायिका बन अपने सफर के साथी के प्रेम जाल में फंस जाती हैं और उसे पाने के लिए वह गर्मी में तप कर अपने प्रियतम सूर्य से मिलन करती हैं और उन दोनों का मिलन बरसात करता हुआ सृष्टि सृजन की ओर बढता है। शरद ऋतु की खीर पाकर वह शरीर को पुष्ट बनाती है। फसल रूपी फल फूल व अन्न को पाकर वो हेमन्त ऋतु भौतिक सुखों के दीपक जलाती है।

अपनी पहली फुर्सत में याद आते हैं उसे अपने पराये जिन्हें वो पीछे छोड़ कर आ चुकी है। शरद ऋतु में वह कांपती हुई उन आचार, विचार, व्यवहार, रीति, रिवाज, श्रद्धा, आस्था को याद करने लगती हैं और ज्ञान के प्रकाश फैलाकर यह संदेश देती है कि अब इस सफर में मैं थक चुकी हूं और मेरा शरीर कईं व्याधियों से घिर चुका है तथा शिशिर काल मुझे जर्जरित कर देगा तथा पतझड ऋतु भी पुराने वस्त्र छोड़ कर नए वस्त्र धारण कर लेगी और मेरा अंत हो जाएगा। मैं भी पुनर्जनम की ओर बढ जाऊंगी।

इसलिए हे मानव, तू इस कोरोना के संकट से निराश मत हो तथा इस से छुप कर अंदर रह कर भी तू मन को ज्ञान के ऊजाले से प्रकाशित कर तो निश्चित रूप से सकारात्मक ऊर्जा से यह मुसीबत का समय निकल जाएगा। दीपक की रोशनियों में मन प्रसन्न होता है और माहौल में जान आ जाती है। यही दीपक की रोशनी कही आस्था को पूजती है तो कहीं किसी जाने वाले की यादों नमन कर याद करती है।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर