ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया 25 मई को महाराणा प्रताप की 480वीं जयंती
डॉ. ललित पाण्डेय
प्रात: स्मरणीय महाराणा प्रताप की 480वीं जयंती पर सभी को बधाई। महाराणा प्रताप ने मध्यकालीन भारतीय इतिहास में जिस अलौकिक और असाधारण शौर्य अभिव्यक्त कर भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व में जो सम्मान और ख्याति अर्जित की वह असाधारण है। उनके शौर्य ने भारत के स्वतंत्रता सेनानियों को ही नहीं, अपितु अनेक अन्य राष्ट्रों को भी स्वतंत्रता के युद्ध के लिए प्रेरित किया।
वे सम्पूर्ण मानवता के लिए एक प्रेरणापुंज बन गए। महाराणा प्रताप के पराक्रम का उल्लेख करते ही यूरोप के चार्ल्स मार्टेल का स्मरण आ जाना स्वाभाविक हो जाता है जो एक ‘डी-फेक्टो’ अर्थात वास्तविक शासक थे और उन्होंने अरब आक्रमणों को रोककर यूरोप की अरब प्रभुत्व से रक्षा की थी। चार्ल्स मार्टेल बप्पा के समकालीन थे।
महाराणा प्रताप ने भी इसी प्रकार मेवाड़ को एक सुरक्षा प्राचीर में परिवर्तित कर मातृभूमि के गौरव की रक्षा की। मेवाड़ ने स्वतंत्रता के रक्षार्थ पर्वत शिखर की भांति अविचल खड़े रहकर निरंतर आठ शताब्दियों से भी अधिक समय तक आक्रांताओं को रोककर जिस अदम्य साहस का परिचय दिया, उससे मेवाड़ स्वतंत्रता का सिरमौर बन गया। विश्व इतिहास में शायद दूसरा उदाहरण खोजने पर भी नहीं मिल सकेगा।
महाराणा के इस ओजस्वी व्यक्तित्व और उनके श्रेष्ठ शासक और उनके सार्वभौमिक अजेय रहने का कारण वे स्वयं तो थे ही, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में गुहिल वंश के पूर्व शासकों की महान परम्परा भी थी। गुहिल वंश का उद्भव और उनका शीघ्र ही सर्वमान्य सम्प्रभु शासक होने के कारणों की जांच पड़ताल करने से यह ज्ञात होता है कि इसके पीछे धर्म के साथ-साथ समकालीन प्रजा की निष्ठा भी थी।
नागदा में जिस तरह बप्पा को बहुत स्वाभाविक तरीके से हारित ऋषि की अनुकंपा से शासन करने का अधिकार प्राप्त हुआ, वह प्राचीन भारतीय राजनीतिक सिद्धांतों के अनुरूप ही था। इससे मिलता-जुलता विवरण कौटिल्य अर्थशास्त्र में भी प्रतिपादित है। कौटिल्य ने एक ओर तो राजा का प्रधान कर्तव्य सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना तो है ही, साथ ही राजा को साम्राज्य की प्रजा की प्रगति का उत्तरदायित्व दिया है और उसे विजिगीषु अर्थात निरंतर विजय की आकांक्षा करने वाला बताते हुए वरुण का प्रतिनिधि बताया है।
इसी समान गुहिल वंश को भी शासन करने का अधिकारी हारित ऋषि ने ही ईश्वरीय अनुकम्पा से घोषित किया। दूसरी ओर गुहिल वंश के शासकों को जिस प्रकार तत्कालीन समाज के सभी वर्गों का विश्वास प्राप्त हुआ वह गुहिलों के स्वाभाविक संप्रभु होने की पुष्टि ही करता है। अनेक समकालीन और परवर्ती स्रोतों से भी इसी पुष्टि होती है। इनके उदय के समय मेवाड़ में ब्राह्मणों का आधिपत्य था और उनकी स्वाभाविक स्वीकृति प्रारंभिक शासकों को थी।
इसके अलावा समाज के अन्य प्रधान वर्गों में जैन समुदाय और कायस्थ तथा भील समुदाय एवं टामटराडस समुदाय था। इनमें टामटराडस और भीली समुदाय थे। दोनों ही समुदाय स्थानीय थे और इनका साथ में होना एक अनिवार्यता भी थी। जैसा कि टॉड ने तो भील समुदाय को स्थानीय शासक की संज्ञा दी है, इसके अलावा महाराणा का भील प्रमुख द्वारा राज्यारोहण के समय तिलक लगाना इनके महत्व को स्थापित ही करता है।
दूसरा प्रमुख स्थानीय समुदाय टामटराडस का था। यह मूलत: नागदा के निवासी थे और यह नागदा एवं चित्रकूट दोनों स्थानों पर तुलारक्षक अर्थात पुलिस अधिकारी और सेनापति के कार्यों में संलग्न थे। समुचित न्याय करने के कारण इनका बहुत सम्मान था।
महारावल कमरसिंह के 1273 ईस्वी के अभिलेख में टामटराडस जाति का वर्णन है। इसे गुहिलों के प्रसार में बड़ा महत्व माना गया है। ये लोग स्थानीय थे, प्रभावशाली थे और तुला रक्षक (पुलिस अधिकारी) थे। एक अन्य अभिलेख में इन्हें वीरवान बताया गया है और ये सेनापति का भी कार्य करते थे।
महाराणा प्रताप को उत्तराधिकार में महाराणा हम्मीर से लेकर सांगा तक की एक महान परम्परा मिली थी जिसने मेवाड़ की संप्रभुता की रक्षा कर एक अद्वितीय परम्परा की पालना की थी और एक अत्यल्प व्यवधान के पश्चात भी गुहिल वंश की निरंतरता को बनाए रखा तो जिसके पीछे उनका पराक्रम तो था ही साथ ही प्रजा का अटूट विश्वास भी था, क्योंकि भारतीय राजनीतिक सिद्धांतों में वैदिक काल से ही राजा की शक्ति का अंतिम अनुमोदन प्रजा के प्रतिनिधि ही सभा, समिति और विदथ जैसी संस्थाओं के माध्यम से करते थे और परोक्ष- प्रत्यक्ष रूप में यह मध्यकालीन मेवाड़ में भी दिखती है।
महाराणा के इस संग्राम को सफल बनाने में भीलों के सहयोग के साथ ही भामाशाह का सहयोग भी था। इस सम्पूर्ण ऐतिहासिक- राजनीतिक संघर्ष में विजय का कारण मानवीय निर्णय तो थे ही साथ ही मेवाड़ धरा का विशिष्ट प्राकृतिक विन्यास और मेवाड़ भूमि का अभिन्यास भी था। इस संप्रभुत्ता की रक्षा के प्रयास में मानवीय कोशिश तो थी ही साथ ही हल्दीघाटी और दिवेर की विशिष्ट भूआकृति भी एक महत्वपूर्ण कारण था।
इस संदर्भ में चावंड की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति थी जिसने उस समय प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान की जब शेष क्षेत्र अपना सामरिक महत्व खो चुके थे। इस संघर्ष में नठारा की पाल का भी अप्रतिम योगदान था। नठारा न केवल सबसे बड़ी पाल थी अपितु मगरे का सबसे बड़ा गांव था।
नठारा की पहाड़ियों में ऐसे क्षेत्र थे जो अत्यंत दुर्गम थे और यह क्षेत्र लोहा, जस्ते का प्रधान भाग था तथा गरगल नदी ने सिंचित कृषि भूमि को उपलब्ध कराया था। अत: यह कहा जा सकता है कि महाराणा के अदम्य साहस और शौर्य, प्रजा की राणा के प्रति अगाध आस्था, भौगोलिक स्थिति और शताब्दियों की निरंतर विद्यमान अक्षुण्ण स्वतंत्रता को बनाए रखने की भावना ने महाराणा और मेवाड़ को अपराजेय बनाए रखा।
(लेखक वरिष्ठ पुराविद् व इतिहासविद् हैं।)