नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि लॉकडाउन की तुलना आपातकाल से नहीं की जा सकती और लॉकडाउन के दौरान किसी अभियुक्त के स्वत: जमानत का अधिकार खत्म नहीं होता।
न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस फैसले को निरस्त कर दिया जिसमें उसने एक अभियुक्त को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) के तहत निर्धारित समय सीमा के अंदर आरोप पत्र न दायर किए जाने के बावजूद स्वत: जमानत के अधिकार से वंचित कर दिया था। खंडपीठ में न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति वी रमासुब्रमण्यन भी शामिल हैं।
उच्च न्यायालय ने फैसले में कहा था कि लॉकडाउन, आपातकाल की घोषणा के समान है और इस दौरान 60 दिन और 90 दिन की समय सीमा के भीतर आरोप पत्र दाखिल न करने पर भी आरोपी स्वत: जमानत के अधिकार का दावा नहीं कर सकता, लेकिन शीर्ष अदालत ने इस फैसले को निरस्त करते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 167(2) के प्रावधानों के तहत अपराध में सजा के प्रावधान के हिसाब से 60 दिन और 90 दिन की निर्धारित समय सीमा के अंदर अदालत में आरोप पत्र दाखिल न करने पर आरोपी को जमानत पाने का पूरा अधिकार है।
शीर्ष अदालत ने आपातकाल के दौरान एडीएम जबलपुर के मामले का जिक्र करते हुए कहा कि उस मामले में दिया गया उसका फैसला प्रतिगामी था। उल्लेखनीय है कि 1976 के एडीएम जबलपुर के मामले में उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने चार-एक के बहुमत के फैसले में माना था कि अनुच्छेद 21 में ही लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार सन्निहित हैं। जब अनुच्छेद 21 निलंबित दशा में हो तो किसी भी व्यक्ति का जीवन और उसकी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाते हैं।