पाली। अखिल भारतीय साहित्य परिषद पाली विभाग की ओर से आनलाइन आयोजित साहित्य संगोष्ठी में मारवाड़ के साहित्यकारों ने मारवाड़ के लोक देवी देवताओं को लेकर सामाजिक समरसता के प्रतीक माने जाने वाले लोक देवी देवता पर विचार व्यक्त किए।
संयोजक साहित्यकार पवन पाण्डेय ने वताया कि कवि नवनीत राय रुचिर ने सरस्वती वंदना व कवियित्री तृप्ति पाण्डेय के गीत मातृ भू की दिव्य छबि का एक रुपाकार हो से संगोष्ठी का शुभारंभ हुआ। मुख्य वक्ता एडवोकेट अशोक अरोड़ा ने कहा हम सामाजिक समरसयता की बात तो करते हैं पर समय आने पर भूल भी जाते हैं क्या हमने कभी अपने यहां आओजित विवाह या मांगलिक कार्यक्रम में उन लोगों को बुलाया जो हमारे जीवन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप सें नहीं जुड़ें हैं। हम उन लोगों को बुलाते हैं जो पैसे बाले हैं समाज व शहर में प्रमुख हैं। हमें समाज को एक करने की आवश्यकता हैं जाति पांति ऊंच नीच के भेदभाव को समाप्त करना है। हमारे देवी देवताओं ने सभी को एक किया है और हम बंटते जा रहे हैं।
विशिष्ट अतिथि जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर के डा.गोविन्द सिंह राजपुरोहित ने संत खॆतेश्वर पृथ्वी पर ब्रह्मा के अंश अवतार, ब्रह्म संस्कृति के प्रणेता, समाज संगठक, पर्यावरण संरक्षक, जीव जंतु के प्रति दयावान, सात्विकता एवं शाकाहार के प्रबल पक्षधर संत थे। भगवान खेतेश्वर ने प्रत्येक घर से एक एक रुपैया इकट्ठा कर समाज को एक सूत्र में बांधने का भागीरथी प्रयास किया जो आज के समय में संगठन का एक आधारभूत सूत्र बन
चुका है।
संत श्री ने ब्रह्मा मंदिर के साथ साथ लक्ष्मी नारायण मंदिर, शिव पार्वती मंदिर, हनुमान मंदिर ,बाबा रामदेव मंदिर एवं आसपास के अन्य स्थानों पर भी कई मंदिरों, धर्मशालाओं, गौशालाओं आदि का निर्माण करवाया। स्ंगोष्ठी अध्यक्ष साहित्यकार डा.श्रीलाल सुथार ने समाज को एक करने की बात करते हुए कहा कि हमारे घर पर किसी भी जाति का व्यक्ति आता है तो हम उससे जातिगत व्यवहार न करके भाईचारे का व्यवहार करें। समाज में सभी एक हैं
कार्य अलग हो सकते हैं। हमारे लोक देवी देवता सामाजिक समरसता के पर्याय है। संत खेतेश्वर, संत रुपमुनि, वीर तेजाजी, गोगाजी, पाबूजी, गौतमजी, पीपाजी, संत लिखमीदास जी, नामदेव, ओम बन्ना, आचार्य भिक्षु आदि संतों के जीवन से सामाजिकता का संदेश आत्मसयात करना है।
प्रो.यशोदा परिहार ने संत लिखमीदास को सामजिक समरसता का प्रतीक बताया। उन्होंने ऊंच नीच जैसे भेदभाव का विरोध किया। बीज वक्तव्य साहित्यकार विजय सिंह माली ने कहा कि भारतीय संस्कृति समरसता की संवाहक है। शास्त्र वेद हमें समरसता का संदेश देते हैं। संत भक्त महापुरुषों ने समरसता का प्रेरक उदाहरण सभी के सामने प्रस्तुत किया है।
प्रदीप सिंह बीदावत ने कहा तत्कालीन समय में मीरांबाई को महिला सशक्तीकरण के एक प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है। वे भक्ति साहित्य जगत की एकमात्र ऐसी मूर्ति रहीं, जिनके पीछे कोई पंथ और न अनुयायी न थे लेकिन सैकड़ों सालों से उनके हरजस उसी रूप में गाए जाते हैं। पूरे भारत मीरां के गीतों को गाता है, सैकड़ों सालों से मीरां की परम्परा बिना किसी भौतिक आधारों के जीवित है।
उन्होंने किसी परम्परा को जन्म नहीं दिया और न ही चेले बने। इसके उपरांत भी उनका साहित्य एक अनुपम कृति है जो भक्तिरस में प्रेम योग का मार्ग प्रशस्त करता है। उनका नामकरण उनके दादा राव दूदा नेमिहीरा अर्थात सूर्य जैसी नाम दिया था। मीरां के गुरु रैदास दलित वर्ग में पैदा हुए थे, उन्होंने जाति धर्म का भेद कभी नहीं किया।
पवन पाण्डेय ने कहा लोक देवी देवता सामाजिक समरसता के प्रतीक होते हैं। हमारी भारतीय व हिन्दू संस्कृति जिस प्रकार धार्मिक भावना से ओत प्रोत है उसी प्रकार राजस्थान की धन्य धरा। इस प्रकार के आयोजनों से युवाओं को लोक देवी देवताओं के बारें में बताने व सकारात्मक संदेश देने का अवसर मिलता है। संगोष्ठी में मुख्य अतिथि सहायक निदेशक शिक्षा विभाग लालाराम प्रजापत, डा. दीप्ति चतुर्वेदी, इन्द्रसिंह पिलोवनी, प्रदीप बीदावत, राजकमल व्यास, हरिगोपाल सोनी, वीरेन्द्रपाल सिंह देणोंक, रामलाल डिडेल, रामसुख पायक, देवेन्द्रप्रसाद डाबी, अशोक पाल मीणा, मदनसिंह कनक सादड़ी, अरिहंत चोपड़ा ने भी संबोधित किया।