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आईडिया ऑफ इंडिया-12: सँघर्ष नहीं करना पड़े इसका संघर्ष कर रही है माउंट आबू की सँघर्ष समिति

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आईडिया ऑफ इंडिया-12: सँघर्ष नहीं करना पड़े इसका संघर्ष कर रही है माउंट आबू की सँघर्ष समिति
अनुमति होने के बावजूद माउंट आबू उपखण्ड अधिकारी द्वारा निर्माण सामग्री जारी नहीं करने के कारण गिरी सीलिंग का प्लास्टर।
अनुमति होने के बावजूद माउंट आबू उपखण्ड अधिकारी द्वारा निर्माण सामग्री जारी नहीं करने के कारण गिरी सीलिंग का प्लास्टर।

सबगुरु न्यूज-सिरोही। बारिश शुरू हो गई है। माउंट आबू के हर घर में एक ही समस्या सामने आ रही है। वो है घर के किसी ना किसी कोने से पानी टपकना। किराएदार नया ठिकाना ढूंढने में लगे हैं, लेकिन मकान मालिकों के क्या जो घर को छोड़कर जा नहीं सकते।
माउंट आबू के लोगों को हक दिलवाने के लिए संघर्ष समिति बनाई गई थी। भाजपा की पूर्ववर्ती सरकार में वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री रहते हुए माउंट आबू अपने हक के लिए ऑक्टोबर 2018 में तीन दिन बन्द रहा था। इसके कारण उसे आठ साल बाद जोनल मास्टर प्लान मिल गया। तब माउंट आबू में बोर्ड भी भाजपा का था और संघर्ष समिति की कमान भी वर्तमान भाजपा नेताओं के पास थी। अब नगर परिषद में कांग्रेस का बोर्ड है और संघर्ष समिति में फिर से उन्हीं भाजपा नेताओं का दबदबा है जिनका ऑक्टोबर 2018 में था।

लेकिन, कथित रूप से माउंट आबू के आम आदमी की भवन निर्माण की समस्या के निराकरण के लिए बनाई सँघर्ष समिति का दो तीन कागज पकड़ाने की औपचारिकता के अलावा कांग्रेस सरकार और कांग्रेस बोर्ड में चुप्पी साधना ये बता रहा है कि शायद सँघर्ष समिति का उद्देश्य आम माउंट वासी के हितों को आम की तरह चूसकर उनकी समस्याओं को गुठली की तरह फेंकने से ज्यादा कुछ नहीं रहा है।
वरना राजस्थान और अन्य प्रदेशों में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें सँघर्ष समितियों के संघर्ष ने लोगों के जीवन और जीविका के मूल अधिकारों का न्यायालय की आड़ में हनन करने वाले अधिकारियों से सुप्रीम कोर्ट से न सिर्फ लोगों को राहत दिलवाई, बल्कि ऐसे अधिकारियों पर जुर्माना भी लगवाया। ऐसा हुआ क्योंकि उनके अन्याय के खिलाफ वहाँ के लोगों के लिए बनी सँघर्ष समितियों ने सँघर्ष किया।
-उदयपुर के लोगों से ही सीख सकते थे

न्यायालयों के निर्देशों की गलत व्याख्या करके आम आदमी को परेशान करने वाले अधिकारियों से राहत देने का सबसे निकटतम उदाहरण है राजस्थान का उदयपुर। यहां पर्यावरण सुरक्षा की आड़ में न्यायालयों के आदेशों को गलत तरीके से व्याख्या करके प्राकृतिक स्रोतों  के किनारे बरसों से बसे हुए लोगों के व्यावसायिक और रिहायशी कामो को अधिकारियों ने अटकाया। तमाम कानूनी लड़ाइयां लड़ने के बाद वहां के लोग उच्चतम न्यायालय पहुंचे। वहां से न सिर्फ सालों से बसे स्थानीय मूल निवासियों को राहत मिली बल्कि लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करने वाले अधिकारियों पर आर्थिक दंड भी लगाया।
– भीमताल और नैनीताल को भी मिली राहत
भीमताल और नैनीताल में भी वहां के अधिकारियों ने पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर माउंट आबू की तरह ही स्थानीय लोगों को शोषित करना शुरू कर दिया था। माउंट आबू की तरह ही वहां भी निर्माण गतिविधियों को नियंत्रित करने को कहा गया था। लेकिन, वहां के अधिकारियों ने भी मेहनत से बचने के लिये  माउंट आबू उपखण्ड अधिकारियों की तरह रेगुलेशन की जगह रेस्ट्रिक्शन लागू कर दिया।
वहां के स्थानीय निकाय के जनप्रतिनिधियों और स्थानीय लोगों ने रीगन गुप्ता के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई। भीमताल निवासी रीगन गुप्ता ने सबगुरु न्यूज को बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने वहां के स्थानीय निवासियों को राहत दी और अब वहां भी नियमानुसार पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए रेगुलेशन लागू करते हुए स्थानीय निवासियों को राहत दी जा रही है।

उन्होंने बताया कि हमने न्यायालय के समक्ष स्थानीय लोगों के जीवन, रहवास और व्यवसाय के मौलिक अधिकारों को प्रभावित करने के तथ्य रखे। अवैध निर्माण के लिए अधिकारियों द्वारा मोनिटरिंग करने की दलील दी न कि पाबन्दी लगाकर स्थानीय लोगों के हक छीनने की।

-इन जगहों की माउंट से समानता और अंतर
माउंट आबू में भी ईको सेंसेटिव ज़ोन है। अन्य जगहों की तरह यहां भी एनवायरमेंट एक्ट की तहत केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने ईको सेंसेटिव ज़ोन में भवन निर्माण की गतिविधियों को नियंत्रित करने को कहा है,लेकिन उपखण्ड अधिकारी और नगर पालिका ने एकाधिकार नहीं टूटे इस कारण इनको रेगुलेशन की जगह रेस्ट्रिक्शन लगा रखा है। लेकिन वहां की सँघर्ष समितियां न्यायालय में गईं और पर्यावरण कानून के दायरे में मिले हक ले आये।
इसके विपरीत माउंट आबू की सँघर्ष समिति 2018 के बाद एक सफल निर्णय नहीं ला पाई। सिर्फ बिल्डिंग बाय लॉज़ के सीमांकन का काम दो साल तक अटका रहाओ सिरोही विधायक संयम लोढ़ा के प्रयास से बनकर आया। अब <span;> इस संघर्ष समिति के पदाधिकारियों की कर्यप्रणाली भी सवालों के घेरे में है कि आखिर 2018 के बाद माउंट आबू को ईको सेंसेटिव जोन के तहत केंद्रीय एवं राज्य पर्यावरण विभाग और राज्य सरकार से मिली नियन्त्रित राहत दिलवाने के लिए इस समिति ने कागज पकड़ा कर फ़ोटो खिंचवाने में अलावा किया क्या?
जिस जगह पर पाबंदी लगी है और जोनल मास्टर प्लान में रेसिडेंशियल इलाका है अधिकारी उस लिमबड़ी कोठी को अनियंत्रित निर्माण सामग्री जारी कर रहे हैं और जोनल मास्टर प्लान व बिल्डिंग बायलॉज़ में जिन लोंगो को माउंट आबू में राहत देने के लिए नियंत्रण के प्रावधान किए गए हैं उन पर मामूली मरम्मत का अधिकार होने का बहाना बनाते हुए तमाम पाबंदी लगा दी हैं।
नैनीताल, भीमताल और उदयपुर के विपरीत माउंट आबू में तो ईको सेंसेटिव जोन के प्रावधानों के अनुसार सबकुछ हो चुका है। सिर्फ भवन निर्माण समिति की बैठक आयोजित करवाकर 34 साल से लगी पाबन्दी से परेशान लोगों को राहत देने की जरूरत है लेकिन, दिन भर नगर पालिका में डेरा डाले मिल जाने वाले सँघर्ष समिति के सदस्यों की उपलब्धि नगण्य है।