जयपुर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत ने कहा कि संगठित कार्य शक्ति हमेशा विजयी रहती है। हम विश्व मंगल साधना के मौन पुजारी हैं। इसके लिए सामर्थ्य-सम्पन्न संघ शक्ति चाहिए, क्योंकि अच्छा कार्य भी बिना शक्ति के कोई मानता नहीं है, कोई देखता नहीं है। यह विश्व का स्वभाव है।
डॉ. भागवत शनिवार को जयपुर के जामडोली स्थित केशव विद्यापीठ में चल रहे सेवा संगम के दूसरे दिन देशभर से आए सेवा भारती के प्रतिनिधियों को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि संघ की प्रार्थना में “विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर् विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्। परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं ” ऐसा कहा गया है। संगठित कार्य शक्ति हमेशा विजयी रहती है। धर्म का सरंक्षण करते हुए हम राष्ट्र को परम वैभव सम्पन्न बनाएंगे।
उन्होंने कहा कि संघ की प्रेरणा से स्वयंसेवकों ने सेवा कार्य किए। इनसे ही सेवा भारती का जन्म हुआ। सेवा का कार्य सात्विक होता है। फल की इच्छा नहीं रखकर किए जाने वाले कार्य सात्विक होते हैं। जो कार्य स्वार्थवश किए जाते हैं वे राजसी कार्य होते हैं। तामसिक कार्य भी होते हैं, ऐसा करने वाले अपना भी भला नहीं करते और दूसरों का भी नुकसान करते हैं।
सेवा का लाभ सेवित और सेवक दोनों को होता है। सेवक निस्वार्थ बुद्धि से सेवा करते हैं। उन्होंने निस्वार्थ सेवा पर बल देते हुए कहा कि कार्यकर्ता कार्य के स्वभाव के साथ तन्मय होता है, तब कार्य होता है। कार्य के अनुरूप कार्यकर्ता हो, ऐसी समझ हमें विकसित करनी है। सेवा कार्य मन की तड़पन से होते हैं। हमें विश्व मंगल के लिए काम करना है। इसलिए काम करने वालों का बड़ा समूह खड़ा करना है।
उन्होंने कार्यकर्ताओं का प्रबोधन करते हुए कहा कि कार्य करने के लिए कार्यकर्ता में रुचि, ज्ञान और भान होना आवश्यक है। हमें जय-जय नहीं करनी है और ना ही करानी है। जो सबने मिलकर तय किया उसको मानना और असहमत होते हुए भी कार्य सफल करना कार्यकर्ता का स्वभाव होना चाहिए। सेवा कार्य में जोश से ज्यादा होश की आवश्यकता रहती है।
डॉ. भागवत ने प्रसिद्धि से दूर रहकर सेवा कार्य करने पर बल देते हुए कहा कि सेवा करते हैं तो अपने आप प्रसिद्धि मिलती है, लेकिन उस ओर ध्यान नहीं देना है। सात्विक सेवा के पीछे अहंकार नहीं होता है। कई बार छोटी- छोटी बातों से बड़ी बातें बनती हैं। सात्विक प्रकृति का हमारा कार्य है, इसलिए सात्विक कार्यकर्ता बनाने पड़ेंगे। ऐसा करने में अहंकार आड़े नहीं आने देना है। पूरे उत्साह से कार्य करते हुए मन, वाणी और शरीर का तप हमें करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि सेवा में उग्रता नहीं सौम्यता चाहिए। ज्यादा बड़बोलापन काम का नहीं है। इसलिए सौ काम हो जाएं, तब एक बताने का हमारा स्वभाव होना चाहिए। भावों की निरंतर शुद्धि करते रहना चाहिए। हम अपनों की सेवा कर रहे हैं, इसमें मनुष्यता की अभिव्यक्ति है। हम कोई बड़ा काम नहीं कर रहे हैं। यह हमारा सामाजिक दायित्व है। ऐसे मन को रखना, इसे ही मानस-तप कहते हैं।
उन्होंने कहा कि सेवा का कार्यकर्ता बनना बहुत आसान बात नहीं है। अपना जैसा रीति रिवाज है, वैसा अन्य किसी संस्था में नहीं है। हम अपनी- अपनी जगह खूब सेवा कार्य करते हैं। सेवा का काम डॉ. हेडगेवार की जन्म शती से नहीं, उनके जन्म से शुरू हुआ। संघ की स्थापना तक डॉ. हेडगेवार ने भी बहुत सेवा कार्य किए। आपदा प्रबंधन भी किया। पीड़ितों की सेवा भी की। इसी का प्रतिबिंब संघ के कार्यक्रमों में आया और जगह जगह होने वाले सेवा कार्यों को सेवा भारती के रूप में व्यवस्थित रूप दिया गया। उन्होंने कार्यकर्ताओं से सेवा के लिए उपयुक्त एवं उत्कृष्टतापूर्ण कार्यकर्ता बनने का संकल्प लेने का आह्वान किया।