विजय सिंह
अजमेर की ऐतिहासिक आनासागर झील को लेकर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के फैसले ने स्मार्ट सिटी के आला अफसरों, भूमाफियाओं, ठेकेदारों और गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले राजनेताओं के खाने कमाने का एक और रास्ता खोल दिया है। यह कहना गलत ना होगा कि पहले इन्हीं की बदौलत आनासागर को छिन्न भिन्न करने की साजिश रची गई और अब ये ही ट्रिब्यूनल के फैसले की आड़ में कमा खाएंगे। यानी समस्या भी इन्हीं की पैदा की हुई और निदान भी इन्हीं के जिम्मे। यानी चोर ही चोर को पकडे और फिर साहूकार बन मलाई खाए।
कुछ ऐसी ही बानगी हाल ही आनासागर झील में लगाए गए फ्लोटिंग ब्रिज के मामले में भी देखने में आई। ब्रिज लगा तो खूब खबरें और फोटो छपीं। ब्रिज ने निर्धारित जिंदगी जीने से पहले ही दम तोड़ दिया। यह बात अलग है कि जिंदा हाथी लाख का मरा सवा लाख का वाली तर्ज पर भंगार हुआ ब्रिज मालामाल कर गया। ब्रिज के अवशेष कहां हैं किसी को कोई खबर नहीं।
कुछ ऐसा ही हाल पूर्व में आनासागर झील के किनारे पर सुरक्षा कवच के लिए लाखों रुपए खर्च कर करीब 5 फीट ऊंचाई तक की लगाई गई रैलिंग का भी हुआ। पाथ-वे निर्माण के दौरान निकाली गई रैलिंग भी निपटा दी गईं। एलिवेटेड रोड का सपना सच हुआ, लेकिन यह गेल इंडिया की ओर से बरसों पहले स्टेशन रोड के डिवाइडर पर लगाई गई रैलिंग को लील गया। ये किसके हिस्से में गई, कौन डकार गया? रेलवे स्टेशन के सामने फुटओवर ब्रिज का लोहा कौन निगल गया?
अजमेर की भोली भाली जनता के लिए यह जानना जरूरी हो गया है कि जब बाड़ ही खेत को खा रही है तो रखवाली का जिम्मा किसको सौंपे। नगर परिषद से नगर निगम बनने के बाद सभापति से मेयर व पार्षद से काउंसलर पद का तमगा लगाकर वातानुकूलित चौपहिया वाहनों में बैठे बैठे रुआब झाड़ने वालों ने किसका भला किया, सिर्फ खुद के सिवा।
अब चौपाटी किनारे बनाए गए सेवन वंडर्स और पाथ-वे को तोड़ने की बातें चल पड़ी हैं। अगर ये भी टूटते हैं तो इसका महंगा मलबा-पत्थर जीमने वाले अभी से चटखारे लेने लगे हैं। टूटना मुश्किल है, शिफ्टिंग की बात कोई नहीं कर रहा है। 100 करोड़ का चूरमा बनाकर जीमने वाले सूरमा अब क्या गली निकालते हैं, यह देखना रोमांचक होगा।