नई दिल्ली |तीन तलाक विधेयक को तत्काल कानूनी जामा पहनाना जरूरी है। ऐसा लगता है कि सरकार महिलाओं से संबंधित पांच आपराधिक कानून जिन्हें 2015 में सरकार की एक समिति की ओर से चिन्हित किया गया था उसकी अनदेखी की जा रही है। ये पांच कानून हैं-वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध की श्रेणी में लाना, पति व उनके रिश्तेदारों की ओर से की गई क्रूरता की परिभाषा स्पष्ट करना, दहेज विरोधी कानून में त्रुटियों को दूर करना, शादी के लिए महिला और पुरुष की एक समान उम्र तय करना और शादी के मामले में दखल देने वाली खाप पंचायतों को गैरकानूनी करार देना।
इसी तरह की एक समिति के गठन के लगभग 25 साल के अंतराल के बाद 2013 में गठित समिति ने महिलाओं और आपराधिक कानून के संबंध में अपनी समीक्षा में कई सिफारिशें कीं, जो सिर्फ मुस्लिम पर्सनल लॉ तक सीमित नहीं है, बल्कि सभी महिलाओं को कानून और न्याय प्रणाली के माध्यम से मदद करने को लेकर की गई हैं। इनमें कुछ ही सिफारिशों को अमल में लाया गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं के कानूनी दर्जे में सुधार के तहत बहुआयामी दृष्टिकोण शामिल है, जिसमें सबसे पहले कानून संबंधी दुर्बलताओं, सरकार की नीतियों और योजनाओं का गहराई से परीक्षण किया जाता है। उसके बाद राज्य, पुलिस और अदालत द्वारा कानून के अनुपालन में कमी होने पर उस पर ध्यान दिया जाता है।
वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध की श्रेणी में लाना : मौजूदा कानून में वैवाहिक दुष्कर्म के शिकार के लिए कोई प्रावधान नहीं है। भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 के तहत वैवाहिक दुष्कर्म को अपवाद में रखा गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक, वैवाहिक दुष्कर्म को अपवाद मानना विवाह की पुरानी धारणा परिचायक है, जिसके तहत पत्नियों को उनके पतियों की जायदाद समझा जाता था। इसलिए सहमति का मूल्यांकन करते समय अपराधी और पीड़ित के बीच संबंध अप्रासंगिक होना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता करुणा नंदी ने वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध की श्रेणी में लाने की वकालत की है। उनका कहना है कि वैवाहिक दुष्कर्म के मामले पति व उनके रिश्तेदारों की क्रूरता से संबंधित आईपीसी की धारा 498-ए के तहत दायर किया जाना चाहिए।
इंडियास्पेंड से बातचीत में नंदी ने बताया, हालांकि वैवाहिक दुष्कर्म की पीड़िताओं को इन कानूनों के तहत अन्य पीड़ितों से अलग बताया गया है और दुष्कर्म पीड़िताओं के लिए अनिवार्य मुफ्त स्वास्थ्य सेवा व कानूनी सहायता का प्रावधान सीमित है। इन मामलों में न्याय का दायरा संकीर्ण है, क्योंकि इस तरह के दुष्कर्म के दोषी गैर-दुष्कर्म के दंड के अधीन होते हैं, जोकि अपेक्षाकृत बहुत कम होता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरपी) के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2016 में महिलाओं के खिलाफ गंभीर अपराधों के कुल 32,25,652 मामलों में से 1,10,378 मामले आईपीसी की धारा 498-ए के तहत दर्ज किए गए थे, जोकि कुल मामलों का लगभग 34 फीसदी है।
महिला आयोग की वकील फ्लेविया एग्नेस ने कहा, अपराध के मामलों की यह संख्या उन मामलों की अपेक्षा कम है जो कि दर्ज ही नहीं हुए, क्योंकि पुलिए विधि प्रकार के शोषण की शिकार महिलाओं वापस भेज देती है बशर्ते उनको शारीरिक चोट नहीं पहुंची हो।
समिति की ओर से क्रूरता की परिभाषा की समीक्षा कर उसमें महिलाओं के खिलाफ घरों में होने वाली हिंसा के विविध रूपों को शामिल करने की सिफारिश की गई है। समिति ने यह भी कहा कि इसका प्रावधान घरेलू हिंसा से महिला का बचाव कानून (पीडब्ल्यूडीएवी) 2005 के तहत घरेलू हिंसा की परिभाषा के समान होना चाहिए।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सव्रेक्षण-2015-16 के आंकड़ों में 31 फीसदी विवाहित महिलाओं को शारीरिक यौन या मानसिक रूप से पति की प्रताड़ना (स्पाउजल वॉयलेंस) का शिकार बताया गया है, जिसमें सबसे ज्यादा शारीरिक हिंसा 27 फीसदी है।
दहेज रोधी कानून में संशोधन : वर्तमान में दहेज निरोधक कानून 1961 के तहत दहेत देने या लेने पर रोक है। इस कानून को तोड़ने वालों के लिए पांच साल की सजा का प्रावधान है। समिति ने एनसीडब्ल्यू की ओर से दहेज रोधी कानून में संशोधन के प्रस्ताव को दोहराया, जिसमें इसकी परिभाषा को व्यापक बनाने की बात कही गई है। समिति ने स्त्रीधन को दहेज की परिभाषा में शामिल करने की सिफारिश की। साथ ही स्त्रीधन का वारिश पति को बनाए जाने वाले प्रावधान को हटाने को कहा।
उधर, जुलाई 2017 में शीर्ष अदालत ने 498-ए के तहत दहेज के मामले में पति और उसके परविार को तत्काल गिरफ्तार करने के प्रावधान को हटा दिया। अदालत ने यह फैसला दहेज के ज्यादातर मामलों में आरोपी के बरी करार दिए जाने की रिपोर्ट के मद्देनजर लिया था।
हालांकि एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2005 से 2015 के दौरा 88,467 महिलाओं की मौत दहेज से संबंधित मामलों में हुआ, जिससे जाहिर है रोजाना 22 महिलाओं की मौत दहेज को लेकर हुई।
शादी की समान न्यूनतम उम्र : बाल विवाह निषेध कानून 2006 के तहत बाल विवाह को गैर-कानूनी करार दिया गया है और लड़के के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़की के लिए 18 साल रखी गई है। समिति ने दोनों की शादी के लिए न्यूनतम उम्र एक समान रखने की सिफारिश की है। शहरी इलाकों में लड़कियों की कम उम्र में शादी की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है जबकि इसके उलट ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शादी अब ज्यादा उम्र में होने लगी है।
ऑनर किलिंग के फतवे जारी करने वाले खाप को अपराध की श्रेणी में लाना : महिलाओं का असमान आर्थिक, सामाजिक और राजनीति स्थिति व दर्जा पितृसत्तात्मक समाज के कारण है जहां महिलाओं के बारे में रूढ़िवादी सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टिकोण देखने को मिलता है। समिति की रिपोर्ट में कहा गया है-“ऑनर किलिंग महज सजा नहीं है, बल्कि निर्मम हत्या है। आमतौर पर लड़कियों की हत्या की जाती है।”
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2014 से 2016 के बीच ऑनर किलिंग के मामलों में दोगुना इजाफा हुआ। वर्ष 2015 में ऑनर किलिंग के 192 मामले दर्ज किए गए।
समिति ने रिपोर्ट में कहा, महिलाओं प्रति हिंसा को कठिन सामाजिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया गया है जिसके जरिये महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम महत्व दिया जाता है। इस प्रकार महिलाओं के गुणात्मक अधिकार का उल्लंघन होता है।
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