नई दिल्ली। भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी अपने कुशल नेतृत्व और ओजस्वी वक्ता के रूप में ही नहीं बल्कि एक लोकप्रिय कवि के रूप में भी याद किए जाएंगे।
राष्ट्रधर्म और वीरअर्जुन अखबारों के संपादक रहे वाजपेयी ने पत्रकारिता में ही नहीं बल्कि साहित्य की दुनिया में भी अपनी कलम की धाक जमाई थी और मंचों पर अपने उद्गारों से श्रोताओं का वह मन मोह लेते थे। वह व्यक्तित्व से भले ही राजनीतिग्य रहे हों लेकिन हृदय से कवि ही थे। इसीलिए उनकी राजनीति में भी गहरी संवेदना और मानवीयता का पुट था।
वाजपेयी की यह कविता, ‘काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं। गीत नया गाता हूं।’ हिंदी कविता की अमर पंक्तियां बन गईं और जब वह मंच पर यह पंक्तियां सुनाते थे तो तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूंज उठता था। उन्होंने इस कविता में राजनीति के दुश्चक्र और पाखंड को भी उजागर किया था।
राष्ट्रवादी चेतना से भरपूर उनकी कविता में ओज और लय के साथ-साथ एक गहरा राजनीतिक दर्शन भी छिपा हुआ था। वह जीवन को मृत्यु से बड़ी घटना मानते थे। इसलिए उनकी कविता मौत से ठन गई काफी चर्चित हुई थी और गुरुवार को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में 11 जून से जीवन और मृत्यु के बीच हुए उनके संघर्ष को देखा जा सकता है और इस तरह उनकी यह कविता उन पर चरितार्थ हुई।
ठन गई!
मौत से ठन गई,
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे, इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आउंगा, कूच से क्यों डरूं?
तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आजमा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी है कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ां का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
वाजपेयी ने अपनी कविताओं में आजादी के अधूरेपन को भी रेखांकित किया है और उनकी राजनीति का उद्देश्य आज़ादी के सपने को पूरा करना रहा। यह अदभुत संयोग है कि उनका निधन 15 अगस्त के ठीक एक दिन बाद हुआ और उनकी कविता ने पाठकों को आज़ादी की महत्ता से एक बार फिर परिचित कराया और उनकी कविता आज पुन: प्रासंगिक हो उठी। उनकी कविता की यह पंक्तियां लाेगों का ध्यान बरबस खींच लेती हैं…
पंद्रह अगस्त का दिन कहता:
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है,
रावी की शपथ न पूरी है॥
जिनकी लाशों पर पग धर कर
आज़ादी भारत में आई,
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई॥
कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के
बारे में क्या कहते हैं॥
हिंदू के नाते उनका दु:ख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥
इंसान जहाँ बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियां भरता है,
डालर मन में मुस्काता है॥
भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कंठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं॥
लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन गुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूँ
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुन: अखंड बनाएंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आज़ादी पर्व मनाएंगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं,
जो खोया उसका ध्यान करें॥
वाजपेयी ने अपनी कविता यात्रा में जीवन और समाज के सभी पक्षों को एक नया स्वर और एक नया अर्थ दिया है। जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री के रूप में जब धर्मयुग पत्रिका में उनकी कविताएं प्रमुखता से छपीं तो देशभर में उनके कवि रूप की चर्चा हुई थी और तब से लेकर आज तक काव्य प्रेमी उनकी कविताओं के मुरीद रहे।
कवि हृदय होने के कारण ही उन्हें हिन्दी से गहरा प्रेम था और उन्होंने तब संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में पहली बार भाषण देकर विश्व का मन मोेह लिया था। राजनीति के शिखर पर पहुंचने के बाद भी वह सामान्य जीवन के ही पक्षधर रहे और उनकी कविता की यह पंक्तियां इसी बात को रेखांकित करती हैं।
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूं,
इतनी रुखाई कभी मत देना।