जयपुर। दिल्ली में चल रहे किसान आंदेालन का असर राजस्थान-हरियाणा सीमा पर दिख रहा है और कुछ किसान संगठन पिछले कई दिन से शाहजहांपुर सीमा पर धरना दिए बैठे हैं, लेकिन इस धरने पर मौजूद किसानों की संख्या को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजस्थान में किसान आंदोलन किस हद तक बेअसर है और कितने जनाधार विहीन संगठन यह आंदोलन चला रहे हैं।
हाल में हुए पंचायतराज व जिला परिषद चुनाव में भाजपा को मिली सफलता ने भी यह साबित कर दिया है कि राजस्थान का किसान इस आंदोलन से जुड़ाव महसूस नहीं कर रहा है। दिल्ली में किसान आंदोलन चलते बीस दिन से ज्यादा का समय हो गया है, लेकिन राजस्थान में अभी भी यह आंदोलन सही ढंग से शुरू नहीं हो पाया है। प्रदेश में सिर्फ राजस्थान-हरियाणा की सीमा पर कुछ प्रदर्शनकारी बैठे हैं। प्रदेश के अन्य किसी भी हिस्से में किसान आंदोलन नहीं है। इसे लेकर किसी तरह का प्रदर्शन या धरना तक नहीं दिया गया है।
राजस्थान-हरियाणा सीमा पर आंदोलन कर रहे प्रदर्शनकारियों में ज्यादातर वामपंथी दलों से जुड़े संगठनों के सदस्य हैं, जिन्होंने संयुक्त किसान मोर्चे के नाम से यह आंदोलन शुरू किया है। प्रदेश में वामपंथी किसान संगठनों का असर सिर्फ श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़ और सीकर, झुंझुनूं के कुछ हिस्सों में है।
प्रदेश में अब तक वामपंथी संगठनें ने जितने भी किसान आंदोलन किए हैं, वे ज्यादातर इन्हीं इलाकों तक सीमित रहे हैं, लेकिन इस आंदोलन का असर तो इन जिलों में भी नहीं दिख रहा है। राजस्थान की सीमा पर बैठे आंदोलनकारियों के बीच योगेन्द्र यादव, मेधा पाटकर और दिल्ली व अन्य स्थानों से नेता पहुंच रहे है, लेकिन राजस्थान के लोग नहीं दिख रहे हैं।
जहां तक अन्य संगठनों की बात है तो नागौर के सांसद और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के संयोजक हनुमान बेनीवाल ने भी किसान आंदोलन को समर्थन दिया था। बेनीवाल का दल एनडीए में भी शामिल है, हालांकि किसानों के मुद्दे पर वे एनडीए से अलग होने की बात कह रहे हैं। इस शनिवार उन्होंने दिल्ली कूच की बात कही थी और कोटपूतली में सभा भी की, लेकिन इस सभा में उम्मीद के मुताबिक लोग नहीं जुट पाए।
जयपुर-दिल्ली हाइवे डेढ घंटे जाम भी रहा, लेकिन पुलिस ने बेनीवाल को सीमा पार करने की अनुमति नहीं दी और वे जयपुर लौट आए। इसके साथ ही उनकी लाई हुई भीड़ भी निकल गई। यहां उन्होंने सरकार को सात दिन का अल्टीमेटम दिया था। अब देखना यह होगा कि सात दिन पूरे होने के बाद वे क्या करते हैं।
इनके अलावा इस आंदोलन से किसान महापंचायत के संयोजक रामपाल जाट भी जुडे हुए हैं जो किसानों की बात पुरजोर ढंग से उठाते रहे हैं और प्रदेश के टोंक, सवाई माधोपुर, बूंदी, कोटा आदि जिलों में उनका कुछ असर भी है, लेकिन इस आंदोलन में उनके बहुत ज्यादा समर्थक नजर नहीं आ रहे हैं।
किसान संगठनों से जुड़े लोगों का कहना है कि राजस्थान में किसान इस आंदोलन से जुडाव महसूस नहीं कर रहा है। हाल में पंचायतीराज और जिला परिषद के चुनाव परिणाम ने इस बात को साबित भी कर दिया है कि राजस्थान में इस आंदोलन का कोई असर नहीं है। इस चुनाव में 90 प्रतिशत मतदाता किसान है और इस चुनाव में भाजपा को मिली सफलता ने यह साबित कर दिया है कि राजस्थान में इस आंदोलन का कोई असर नहीं है।
किसान संघ ने दिया रचनात्मक सुझाव
प्रदेश में किसानों के सबसे संगठन भारतीय किसान संघ ने इस आंदोलन को समर्थन नहीं दिया है। किसान संघ का मानना है कि नए बिल किसानों के लिए अच्छे परिणाम दे सकते हैं, इसलिए इन्हें वापस ना लिया जाए। हालांकि किसान संघ ने सरकार को कुछ संशोधनों के सुझाव जरूर दिए हैं। इनमें कहा गया है कि समर्थन मूल्य से कम पर कहीं भी खरीद ना हो, निजी व्यापारियों का सरकारी पोर्टल पर पंजीयन हो, व्यापारियों से बैंक गारंटी ली जाए और स्वतंत्र कृषि न्यायालय की व्यवस्था हो।