जयपुर। बॉलीवुड में गोविन्द निहलानी का नाम एक ऐसे निर्देशक के रूप में शुमार किया जाता है, जिन्होंने समानांतर सिनेमा को पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की हैं। निहलानी ने सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को बेहद कुशलता से पर्दे पर उतारती उत्कृष्ट फिल्मों के निर्माण और समानांतर फिल्मों को मुख्यधारा की फिल्मों के बराबर ला खड़ा कर दिया। बॉलीवुड के सबसे सशक्त निदेशक गोविंद निहलानी का आज जन्मदिन है। 19 दिसंबर 1940 को जन्मे गोविंद आज 79वां जन्मदिन मना रहे हैं।
अस्सी के दशक में जब गोविंद निहलानी की पहली फिल्म ‘अर्धसत्य’ आई थी, तो न सिर्फ तहलका मचा गई थी, बल्कि एक नया कीर्तिमान भी गढ़ गई थी। ‘अर्धसत्य’ में निहलानी ने अपने कैमरे और कहानी के माध्यम से जो तानाबाना बुना था, उसे आज भी एक खास स्थान हासिल है। आज गोविंद निहलानी के जन्मदिन के अवसर पर आइए जानते हैं उनके जीवन और फिल्मी सफर के बारे में।
कराची में हुआ था निहलानी का जन्म
कराची में 19 दिसंबर, 1940 को जन्मे गोविंद निहलानी का परिवार 1947 के विभाजन के दौरान भारत आ गया था।गोविंद निहलानी का परिवार देश-विभाजन के बाद उदयपुर आकर बस गया था। यहीं पर अपने एक पेंटर पड़ोसी को देखते हुये कला में उनकी रुचि जागी और एक करीबी फोटोग्राफर ने इसे और बढ़ाया। जिसके बाद गोविंद निहलानी को इन दोनों के बीच के रास्ते सिनेमा के बारे में पता चला। जिसके जादू से प्रभावित हो उन्होंने एक कलाकार बनने की बात पूरी तरह से मन में ठान ली थी। निहलानी ने अपने करियर की शुरुआत विज्ञापन फिल्मों से की। इन्होंने बेंगलुरु के जया चमरजेन्दर पॉलीटेक्निक से सिनेमैटोग्राफी की पढ़ाई की।
सहायक निर्देशक के रूप में की शुरुआत
गोविंद निहलानी ने व्यावसायिक फिल्मों में कैमरामैन वीके मूर्ति के सहायक के रूप में काम करके जहां उन्हें तकनीकी कौशल हासिल करने का मौका मिला। वहीं श्याम बेनेगल जैसे मंझे हुए फिल्मकार के साथ काम करके उन्हें समानांतर सिनेमा के निर्देशन की बारीकियां सीखने में मदद मिली। इसके साथ ही इन्होंने श्याम बेनेगल और रिचर्ड एटेनबॉर्ग की आस्कर विनिंग फिल्म गांधी में बतौर असिस्टेंट डॉयरेक्टर के तौर पर काम किया था।
गोविंद निहलानी जब मुंबई आए तो उनकी मुलाकात सत्यदेव दुबे से हुई थी। दोनों ने साथ मिलकर विजय तेंदुलकर के नाटक ‘खामोश अदालत जारी है’ पर एक फिल्म बनाई थी। उसके बाद पहली फिल्म ‘अंकुर’ बनाते हुए श्याम बेनेगल ने गोविंद निहलानी को फोटोग्राफी की जिम्मेदारी दी थी। इसके बाद तो दोनों की जोड़ी ने भारतीय सिनेमा में ‘निशांत’, ‘मंथन’ और ‘जुनून’ जैसी फिल्मों के रूप में कई झंडे गाड़े।
वर्ष 1980 में ‘आक्रोश’ फिल्म से निहलानी ने की थी शुरुआत
निर्देशक के तौर पर गोविंद निहलानी की शुरुआत 1980 के दशक में आई फिल्म ‘आक्रोश’ से हुई। यह फिल्म सच्ची घटना पर आधारित थी, और इसकी पटकथा मशहूर नाटककार विजय तेंदुलकर ने लिखी थी। जिसके बाद 1983 में आई उनकी फिल्म ‘अर्धसत्य’ जिसको आज भी भारतीय पुलिस की स्थिति और उसकी समस्याएं दिखा पाने वाली सर्वश्रेष्ठ फिल्म कहा जाता है।
‘अर्धसत्य’ गोविन्द निहलानी के करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में शुमार की जाती है। अर्धसत्य एक ऐसे जांबाज पुलिस अधिकारी की कहानी है जो अपराध की जड़ को समाप्त कर देना चाहता है। फिल्म में जांबाज पुलिस ऑफिसर की भूमिका ओम पुरी ने निभायी थी। इसके अलावा अन्य भूमिकाओं में सदाशिव अमरापुरकर, स्मिता पाटिल और नसीरुद्दीन शाह प्रमुख थे। निहलानी की इस फिल्म को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था।
अर्धसत्य’ ने पांच फिल्मफेयर पुरस्कार जीते थे
गोविंद निहलानी की निर्देशित फिल्म अर्धसत्य को अलग-अलग वर्गों में पांच फिल्म फेयर पुरस्कार दिए गए थे। राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर बेहतरीन तरीके से फिल्में बनाने वाले गोविंद निहलानी ने पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन पर भी फिल्म बनाई। यह फिल्म महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘हजार चौरासी की मां’ पर आधारित थी और इसी नाम से बनाई गयी थी। फिल्म में जया भादुड़ी ने शानदार अभिनय किया था और इसे आलोचकों ने बहुत सराहा गया था। कुछ सालों पहले गोविंद निहलानी ने अर्धसत्य-2 बनाने की बात भी कही थी लेकिन वह अभी तक पूरी नहीं हो सकी है।
फिल्म ‘द्रोहकाल’ काे भी दर्शकों ने खूब सराहा था
इसी प्रकार गोविंद निहलानी की फिल्म ‘द्रोहकाल’ ने भी दर्शकों और आलोचकों सभी का दिल जीत लिया था। प्रख्यात अभिनेता और निर्देशक कमल हासन ने ‘द्रोहकाल’ का तमिल रीमेक ‘कुरुथीपुनल’ भी बनाया था, जिसे बाद में 68वें अकादमी पुरस्कार के लिए सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म श्रेणी में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के तौर पर चुना गया था।
इसी प्रकार तमस, विजेता, रुकमावती की हवेली’ फिल्म भी खूब सराही गई थी। निहलानी की फिल्में ऐसी नहीं होतीं, जिन्हें आप देखें और देखकर भूल जाएं। अव्वल तो उनकी फिल्म का प्रभाव फिल्म खत्म होने के बाद शुरू होता है। उनके पात्र आमतौर पर बुद्धिमान, गंभीर और विश्वास से भरे नजर आते हैं तो वहीं उनके कई पात्रों के भीतर एक आग दिखाई देती है, समाज के प्रति आक्रोश दिखाई देता था।
शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार