पटना। कभी बिहार की सत्ता में कांग्रेस का वर्चस्व था, लेकिन बदलते समय के साथ लोगों की आकांक्षाओं को पहचानने में कांग्रेस चूक गई और इस बार के लोकसभा चुनाव में वह महज एक सीट पर सिमटकर रह गई।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और विकासशील इंसान पार्टी शामिल है। तालमेल के तहत राजद के खाते में 20 सीटें गई थी, जिसमें से उसने एक आरा सीट भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी- लेनिनवादी) के लिए छोड़ दी थी। कांग्रेस ने 9, हम ने 3, रालोसपा ने 5 और वीआईपी ने 3 सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे थे।
कांग्रेस ने किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया, समस्तीपुर(सु), मुंगेर, पटना साहिब, सासाराम (सु), वाल्मीकि नगर और सुपौल संसदीय सीट पर अपने प्रत्याशी उतारे लेकिन इनमें से किशनगंज को छोड़ सभी सीटों पर उसके उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा।
किशनगंज से कांग्रेस के टिकट पर पूर्व मंत्री मोहम्मद हुसैन आजाद के पुत्र और किशनगंज के निवर्तमान विधायक डॉ. मोहम्मद जावेद चुनाव ने चुनाव लड़ा। उनकी टक्कर जनता दल यूनाईटेड (जदयू) के मोहम्मद अशरफ से हुई। डॉ जावेद ने मोहम्मद अशरफ को कड़े मुकाबले में 35 हजार मतो के अंतर से पराजित किया।
महागठबंधन का नेतृत्व कर रहे राजद के हिस्से कोई सीट नहीं आई जबकि उसकी सहयोगी कांग्रेस किशनगंज लोकसभा सीट को जीतने में कामयाब रही। कांग्रेस के अलावा महागठबंधन का कोई भी घटक दल सीट नहीं जीत पाया। किशनगंज एकमात्र सीट है जहां महागठबंधन के प्रत्याशी ने जीत हासिल की है।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने राजद और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ा था। कांग्रेस ने 12, राजद ने 27 और राकांपा ने एक सीट पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। कांग्रेस ने 2 सीट, राजद ने चार और राकांपा ने एक सीट पर सफलता हासिल की थी। कांग्रेस ने किशनगंज और सुपौल सीट से जीत हासिल की थी। वर्ष 2019 के आम चुनाव में सुपौल से कांग्रेस की रंजीत रजंन को जदयू के दिलेश्वर कामत से हार का सामना करना पड़ा।
बिहार में 1990 का दशक पिछड़ा वर्ग के उभार के लिए जाना जाता है। इस दशक में जब मंडल राजनीति ने जोर पकड़ी तो कांग्रेस ऊहापोह में रही, न तो वह सवर्णों का खुलकर साथ दे पाई और न ही पिछड़े और दलित समुदाय को साध पाई। इसी दौरान लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे नेताओं के राजनीतिक कद को नया आकार मिला।
इस बदलाव के दौर से पहले तक बिहार की सत्ता में कांग्रेस का ही वर्चस्व था, लेकिन बदलते वक्त को शायद पहचानने में कांग्रेस चूक गई। कांग्रेस का जनाधार लगातर घटता चला गया और वर्ष 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस महज एक सीट पर सिमट कर रह गई।
वर्ष 2000 में बिहार विभाजन के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस ने अपना सबसे खराब प्रदर्शन दिया और 40 लोकसभा सीटो में से मात्र एक सीट हासिल कर पाई। इससे पूर्व वर्ष 1977 में जनता पार्टी की प्रचंड लहर में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था। वर्ष 1991 में अविभाजित बिहार में कांग्रेस ने एक मात्र सीट पर सफलता हासिल की थी।
वर्ष 1952 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस ने बिहार में 54 सीट में से 45 सीट पर जीत हासिल की। इसके बाद दूसरे आम चुनाव 1957 में 41 सीट, वर्ष 1962 में 39, वर्ष 1967 में 34, 1971 में 39 सीट पर जीत हासिल की। वर्ष 1977 में आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव में बिहार में काग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन रहा। कांग्रेस को सभी 54 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा।
वर्ष 1980 में कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरा और उसने 30 सीट पर जीत हासिल की। वर्ष 1984 में कांग्रेस का प्रदर्शन बिहार में सबसे बेहतर साबित हुआ। इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर में बिहार में कांग्रेस के 48 प्रत्याशी निर्वाचित हुए।
वर्ष 1989 के आम चुनाव में लालू प्रसाद यादव ने बिहार में अपना सिक्का जमा लिया। मुसलमानों और यादवों के बीच लालू यादव प्रख्यात नेता के रूप में उभरे। उस दौरान ज्यादातर मुसलमान कांग्रेस के समर्थक हुआ करते थे, लेकिन लालू ने वह वोट बैंक तोड़ दिया।
दूसरा फैक्टर जिसने लालू के पक्ष में काम किया वह वर्ष 1989 में भागलपुर हिंसा थी। यादव की पार्टी जनता दल ने बिहार में 32 सीटों पर कब्जा जमा लिया वहीं कांग्रेस 04 सीट पर सिमट कर रह गयी। वर्ष 1991 में कांग्रेस का प्रदर्शन और खराब रहा। कांग्रेस ने मात्र एक सीट बेगूसराय से जीत हासिल की। कांग्रेस की दिग्गज कृष्ण साही बेगूसराय से निर्वाचित हुई।
वर्ष 1996 के आम चुनाव में कांग्रेस ने दो सीट कटिहार और राजमहल(सु) से जीत हासिल की। कटिहार से तारिक अनवर और राजमहल (सु) से थॉमस हांसदा निर्वाचित हुये। वर्ष 1998 में कांग्रेस ने पांच सीट मधुबनी,कटिहार, बेगूसराय, सिंहभूम (सु) और लोहरदगा(सु) से जीत हासिल की।
वर्ष 1999 में कांग्रेस ने चार सीट राजमहल (सु), बेगूसराय, औरंगाबाद और कोडरमा पर अपना कब्जा जमाया। वर्ष 2004 में कांग्रेस के प्रत्याशियों ने तीन सीट मधुबनी, औरंगाबाद और सासाराम (सु) सीट से जीत हासिल की। इसके बाद वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने किशनगंज और सासाराम (सु) सीट पर जीत हासिल की। वर्ष 2014 में कांग्रेस ने दो सीट सुपौल और किशनगंज पर अपना कब्जा जमाया था।
वर्ष 1989 के भागलपुर दंगे के एक साल बाद 1990 में जब बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ था, तब 196 विधानसभा सीटों पर कब्जा करनेवाली कांग्रेस महज 71 सीटों पर सिमट गई थी। इसके बाद से कांग्रेस के जनाधार के गिरने का जो सिलसिला शुरू हुआ, तो गिरता ही चला गया।
करीब तीन दशक से सत्ता से दूर बैठी कांग्रेस के लिए बिहार में 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव कई मायनों में जीने मरने के प्रश्न जैसा था। अपने अस्तित्व की इसी लड़ाई में कांग्रेस ने इस बार बिहार में राजद के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और इसका फायदा भी उसे मिला। कांग्रेस ने 243 में से 27 सीटों पर जीत हासिल की।
वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सीट सिमटकर चार रह गईं और यह समझा जाने लगा था कि अब कांग्रेस की वापसी मुमकिन नहीं लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने वापसी करते हुए राजद और जदयू के साथ मिल कर चुनाव लड़ा और 23 सीटों की बढ़त लेते हुए 27 सीटों पर जीत हासिल की। कांग्रेस की इस जीत को बिहार में उसके कमबैक के रूप में देखा जाने लगा लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को एक बार फिर करारी हार का सामना करना पड़ा है।