-परीक्षित मिश्रा
सबगुरु न्यूज-सिरोही। देवनगरी है तो देव और देवतुल्य लोग भी होंगे। शास्त्रों में कलयुग में धन और सत्ता के भागीदार ही देवता की श्रेणी में हैं। तो ऐसे ‘देवतुल्य’ लोग यहां भी हैं। ये बात अलग है कि इन्हें अमरता का वरदान प्राप्त हो या न हो, लेकिन शुक्रवार और शनिवार को कोरोना काल में भी इनका एक जगह एकत्रीकरण देखकर ये लगा कि ‘अजरता’ का एक कारक ‘आरोग्यता’ की प्राप्ति तो इन्हें है ही।
कोरोना काल में निषेधाज्ञा के कारण एक बाप को अपनी बेटी की शादी में अपने रिश्तेदारों को बुलाकर अरमान पूरे करने इजाजत हो या न हो सत्ता पर सत्ता की स्थाई धुरी बन चुके देवनगरी के देवतुल्य लोगों को अधिकारियों के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करने के लिए मजमा इकट्ठा करने की इजाजत है।
एपिडेमिक एक्ट के चलते अपने भाई, दोस्त, रिश्तेदार को किसी सदात्मा को धर्मशास्त्र में अंतिम संस्कार में दिए अधिकार से भले ही वंचित किया जा सकता है, लेकिन देवनगरी के इन देवताओं को ‘जय-वीरू’ वाली दोस्ती जताने के लिए शहर के लोगों को इकट्ठा करने का अधिकार स्थाई हो चुका है।
मास्क और 6 फीट की सोशल डिस्टेंसिंग के लिए डंडे, गालियां और चालान की सजा एक आम सिरोहीवासी को तो मिल सकती है। लेकिन शहर में सत्ता ‘शक्ति’ को वरण कर कथित ‘भोले’पन से व्यवस्था संचालन करने वालों की परिक्रमा करने वाले स्वयंभू ‘विघ्नहर्ता’ प्रथम पूजनीय होने के कई सारे आशीर्वाद पा चुके हैं।
शहर में प्रशासन का अंग होने पर स्थान परिवर्तित होने पर यहां आना। फिर उसके बाद यहां से प्रस्थान कर जाना व्यवस्था का हिस्सा है। लेकिन जिस तरह इस व्यवस्था को पालने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की व्यवस्था को ताक में रखने को भी व्यवस्था का हिस्सा बना दिया गया है, उस पर ये सवाल उठाना जायज है कि क्या वाकई ‘समरथ को नहीं दोस गोसाई।’
शादी और अंतिम संस्कार के धार्मिक अधिकारों पर बंदिशों की स्थिति में विदा होने वाले अधिकारी के अभिनंदन संस्कार पर शहर के लोगों का एकत्रीकरण को स्वच्छंदता से करने वाले लोगों को ‘देवतुल्य’ माना जा सकता है। ऐसे लोगों के प्रयासों को आयोजन की बजाय नियम की अवहेलना मानना भी पापी होने का प्रमाण है।लेकिन, ये भी उतना ही शास्वत है कि पाप और पापी के बिना देवत्व की तुलना भी असम्भव है।
जिन कायदों का टूटना शुक्रवार और शनिवार को आयोजित अभिनंदन समारोह में कानून का सम्मान माना गया था, वही सरजावाव दरवाजे और शहर में फिराई जा रही मुनादी पर इन्हीं लोगों द्वारा आम आदमी के लिए कानून का अपमान घोषित किया हुआ है।
22 मार्च से एपिडेमिक एक्ट के तहत बनाये उन्हीं कायदों की पालना के लिए प्रशासन की कठोरता से शहर की गलियों नुक्कड़ों ने आम आदमी के आत्म सम्मान को कई-कई बार कुचलते हुए देखा है। आम शहरी के दर्द पर मलहम के लिए सवाल पूछने का पाप भी जरूरी हैं।
-तो क्या देवनगरी में ‘शक्तिबिंदु’ और उसकी परिक्रमा करने वाले स्वयंभू ‘विघ्नहर्ताओं’ को बच्चो की शादी का अरमान सजाए पिता तथा शुभचिंतकों द्वारा अर्थी के कांधों से वंचित पुण्यात्मा से ज्यादा अधिकार एपिडेमिक एक्ट दौरान दिए हुए हैं?
-क्या इन्हें सिर्फ अभिनंदन के लिए लोगों को एकत्रित करने की अनुमति दिए जाने का विशेष अधिकार प्राप्त है?
-क्या इस तरह का एकत्रीकरण कोरोना संक्रमण नहीं फैलता है?
-क्या इस तरह के एकत्रीकरण से आम आदमी को वंचित रखा गया है?
-क्या इस तरह किसी अधिकारी के प्रति अपनी व्यक्तिगत निष्ठा दिखाने के निजी आयोजन को शादी और अंतिम संस्कार से ज्यादा वरीयता है?
-क्या बारातियों की सूची और आधार कार्ड की तरह प्रशासन ने शुक्रवार और शनिवार को आयोजित अभिनंदन समारोह में शामिल लोगों की सूची और आधार कार्ड की आवश्यकता नहीं थी?
-क्या कोरोना ने प्रशासन के साथ इन सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किया है कि शहर के समर्थ लोगों के आयोजन के दौरान वो आयोजन स्थल से सोशल डिस्टेंसिंग बनाकर रखेगा?
यदि इन सब सवालों का उत्तर ‘हां’ है तो देवनगरी के इन देवतुल्य लोगों के लिए इसे प्रशासन की तरफ से दिया ‘देवत्व’ का वरदान मिला मान लिया जाए। देवताओं पर तो किसी कार्रवाई की कल्पना करना भी भूलोक के प्राणियों के बस के बाहर की वस्तु है।
शायद इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘समरथ कोई नहीं दोष गोसाई’ दोहा बालकांड में देकर ये इशारा करने का प्रयास किया है कि समरथ पर अंगुली उठाने से बड़ा बालपन कुछ नहीं। लेकिन, शायर गुलजार भी ये लिख गए हैं कि ‘दिल तो बच्चा है जी’ और जिज्ञासा बच्चों का मौलिक गुण है?