सबगुरु न्यूज। मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मृग नक्षत्र पर शाम के समय भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ, इसलिए इस दिन भगवान दत्तात्रेय का जन्मोत्सव सर्व दत्तक्षेत्रों में मनाया जाता है। इस वर्ष दत्त जयंती 29 दिसंबर को है। दत्त जयंती पर दत्त तत्त्व पृथ्वी पर सदा की तुलना में 1000 गुना अधिक कार्यरत रहता है। इस दिन दत्त की भक्तिभाव से नामजप आदि उपासना करने पर दत्त तत्त्व का अधिकाधिक लाभ मिलने में सहायता होती है।
जन्मोत्सव मनाना
दत्त जयंती मनाने संबंधी शास्त्रोक्त विशिष्ट विधि नहीं पाई जाती। इस उत्सव से सात दिन पूर्व गुरुचरित्र का पारायण करने का विधान है। इसी को गुरुचरित सप्ताह कहते हैं। भजन, पूजन एवं विशेषतः कीर्तन इत्यादि भक्ति के प्रकार प्रचलित हैं। महाराष्ट्र में औदुंबर (गूलर), नरसोबा की वाडी, गाणगा पुर इत्यादि दत्तक्षेत्रों में इस उत्सव का विशेष महत्त्व है। तमिलनाडु में भी दत्तजयंती की प्रथा है। कुछ ब्राह्मण परिवारों में इस उत्सव के निमित्त दत्त नवरात्रि का पालन किया जाता है एवं उसका प्रारंभ मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी से होता है।
दत्तयज्ञ
इस में पवमान पंचसूक्त के पुरश्चरण (जप) एवं उसके दशांश से अथवा तृतीयांश से घृत (घी) एवं तिल से हवन करते हैं। कुछ स्थानों पर पंचसूक्त के स्थान पर दत्तगायत्री का जप एवं हवन करते हैं। दत्तयज्ञ के लिए किए जाने वाले जप की संख्या निश्चित नहीं है। स्थानीय पुरोहितों के परामर्श अनुसार जप एवं यज्ञ किया जाता है।
भगवान दत्तात्रेय की उपासना
प्रत्येक देवता का विशिष्ठ उपासना शास्त्र है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक देवता की उपासना के अंतर्गत प्रत्येक कृत्य विशिष्ट प्रकार से करने का शास्त्र आधार है। ऐसे कृत्य के कारण ही उस देवता के तत्त्व का अधिकाधिक लाभ होने में सहायता होती है।
दत्त उपासना के अंतर्गत नित्य के कुछ कृत्य निश्चितरूप से किस प्रकार करने चाहिए, इस संदर्भ में प्रस्तुत सारणी में दिया है। ये और ऐसे विविध कृत्यों का शास्त्राधार सनातन-निर्मित ग्रंथमाला धर्मशास्त्र ऐसे क्यों कहता है? में दिया है। दत्त पूजन से पूर्व उपासक श्रीविष्णु समान खडी दो रेखाओं का तिलक लगाए। दत्त को चंदन अनामिका उंगली से लगाएं।
पुष्प सात अथवा सात गुणा में जाही एवं रजनीगंधा के चढ़ाएं। पुष्पों का डंठल देवता की ओर करके चतुष्कोणी आकार में चढाएं। अगरबत्ती चंदन, केवडा, चमेली, जाही एवं अंबर गंध की दो अगरबत्ती एवं इतर (इत्र) खस सुगंध का अर्पण करें। दत्तकी न्यूनतम सात परिक्रमाएं करें।
तीर्थक्षेत्र एवं उनकी विशेषताएं, अनुभूति एवं प्रमुख स्थान
दत्त उपासना – अधिवक्ता के परामर्श के अनुसार श्रीगुरुचरित्रका वाचन करना और पारिवारिक समस्या का निवारण होना
दत्तभक्त गुरुचरित्र का वाचन, पाठ एवं श्रवण बडे भक्तिभाव से करते हैं। ‘पुत्रवधू के अनुचित व्यवहार से त्रस्त होकर एक परिवार के कुछ लोग विवाहविच्छेद के उद्देश्य से एक अधिवक्ता के पास परामर्श लेने गए थे। अधिवक्ता ने उन्हें समझाया और उन्हें ‘संक्षिप्त श्रीगुरुचरित्र’ पोथी देकर उसका प्रतिदिन पाठ करने के लिए कहा। अधिवक्ता का यह परामर्श सुनकर ससुरजी तो चकरा गए; किंतु सास ने पोथी पढने का परामर्श मान लिया।
वर्तमान कलियुग में अनेक परिवारों में अतृप्त पूर्वजों के कारण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कष्ट होते हैं। उपरोक्त वधू का विक्षिप्त आचरण पितृदोष के (पूर्वजों की अतृप्ति के कारण होने वाली पीडा के) कारण था। गुरुचरित्र के पाठ से, अर्थात् दत्तात्रेय देवता की उपासना से संबंधित पूर्वजों को आगे की गति मिल गई। परिणाम स्वरूप आध्यात्मिक कारणों से उत्पन्न पारिवारिक समस्याएं दूर हो गईं।
प्रमुख तीर्थक्षेत्र
कारंजा : श्री नृसिंह सरस्वतीजी ने भगवान दत्तात्रेय के द्वितीय अवतार के रूप में जन्म लिया।
वे यहां पर बारह वर्ष तक रहे। इस क्षेत्र में अष्टतीर्थ एवं दत्तात्रेय की उपासना परंपरा के सात संतों की समाधियां हैं। यह कृष्णा तथा पंचगंगा नदियों का संगम क्षेत्र है। यह टेंबेस्वामी जी का प्रेरणा स्थान है।
आध्यात्मिक महत्त्व
यहां श्राद्धकर्म आदि विधि करने से पितरों को सद्गति मिलती है। अनेक लोगों का यह अनुभव है कि यहां साधना करने से पिशाचबाधा से पीडित लोग बाधामुक्त हो जाते हैं।
दत्त के सभी तीर्थक्षेत्र अत्यंत जागृत हैं। इन तीर्थक्षेत्रों में जाने पर अनेक भक्तों को शक्ति की अनुभूति होती है।
गाणगापुर : यह पुणे-रायचूर मार्ग पर कर्नाटक में है। भीमा एवं अमरजा नदियों का यहां संगम है। यहां श्री नृसिंह सरस्वतीजी ने तेईस वर्ष वास किया एवं यहीं पर सर्व कार्य किया। यहीं से उन्होंने श्रीशैल्य के लिए प्रयाण किया।
कुरवपुर, कर्नाटक : रायचूरसे मोटर द्वारा पल्लदिनी तक (कुरगड्डी) जा सकते हैं। यह द्वीप कृष्णा नदी में स्थित है। यह श्रीपाद श्रीवल्लभजी का कार्य स्थान है।
पीठापुर : आंध्रप्रदेश में श्रीपाद श्रीवल्लभजी का जन्म स्थान, जिसे टेंबेस्वामीजी ने उजागर किया।
वाराणसी : यहां नारदघाट पर दत्तात्रेय मठ है। श्री नृसिंह सरस्वती जी के जो वंशज आज भी यहां हैं, उनका उपनाम ‘काळे’ है। आगे चलकर ‘काळे’ नामका अपभ्रंश ‘कालिया’ हो गया। आज भी वहां कालिया नामक बाग एवं गली है।
श्रीशैल्य : हैदराबाद के निकट है। श्री नृसिंह सरस्वती जी ने वहां गमन किया था।
भट्टगांव (भडगांव) : यह काठमाडु से (नेपाल) 35 किमी की दूरी पर है।
प्रमुख ग्रंथ
दत्त पुराण : इस पुराण के आगे दिए अनुसार तीन भाग हैं।
1. कर्मकांड
2. उपासनाकांड
3. ज्ञानकांड
अवधूत गीता : यह नाथपंथ का एक प्रमाण भूत ग्रंथ है। दत्तात्रेय ने इस गीता का उपदेश कार्तिकेय को दिया है।
विठ्ठल अनंतसुत कावडीबोवाकृत ‘श्री दत्तप्रबोध’
श्री गुरुचरित्र : इस में गुरुमहिमा एवं संप्रदाय के आचारधर्म का विवरण किया गया है।
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘दत्त’