संपादकीय : सबगुरु न्यूज
अजमेर शहर में सत्ताधारी कांग्रेस जितनी कमजोर होगी उतनी ही राजयोग भोग रहे यहां के वर्तमान भाजपा विधायकों की परेशानी बढ़ेगी। वजह यह है कि अजमेर उत्तर और दक्षिण की सीट को अपनी बपौती मान बैठे भाई साहब और बहनजी की जगह भाजपा चाह कर भी किसी और को मौका नहीं दे सकी। इस बार चुनावी बयार में भाजपा के पाले में नए चेहरों की ओर से पेश की जा रही दावेदारी से बदलाव के संकेत मिलने लगे हैं। भाजपा का गढ़ बन चुके अजमेर में इस बार पार्टी नए प्रत्याशियों को उतारने का जोखिम बेहिचक ले सकती है।
भाजपा के रणनीतिकारों की निगाह फिलहाल कांग्रेस में टिकट को लेकर मच रहे घमासान पर टिकी है। माना जा रहा है कि जो भी कांग्रेस का टिकट हासिल कर लेगा शेष बचे दावेदार उसकी कारसेवा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। ऐसे में कमल वाला आलाकमान नए प्रत्याशियों को चुनावी समर में जीत सुनिश्चित मानकर उतार सकता है। ऐसा होता है तो अरसे से खूंटा गाड़कर अजमेर की राजनीति में अंगद के पैर की तरह जमे बहनजी और भाई साहब की सेवानिवृत्ति तय है।
खरी-खरी बात ये है कि जब अजमेर में अनिता भदेल और वासुदेव देवनानी का करीब दो दशक पहले राजनीतिक अवतरण हुआ था, तब स्थानीय नेताओं को दरकिनार करते हुए भाजपा ने बिना राजनीतिक अनुभव वाले इन नए चेहरों पर दांव खेला था। पहली जीत के बाद देखते ही देखते ये इतने बड़े वट वृक्ष में तब्दील हो गए कि इनकी छांव में कोई नया पौधा अंकुरित ही नहीं हो पाया। भाजपा कार्यकर्ताओं की फौज भी उत्तर व दक्षिण में बंट गई। कांग्रेस से लोहा लेने की बजाय अजमेर भाजपा में अपनों से दो-दो हाथ करने की परिपाटी ने जन्म ले लिया।
दो दशक से विधायक और लालबत्ती वाली गाड़ी तक का सुख भोग लेने के बावजूद संघनिष्ठ होने का दावा करने वाले देवनानी व भदेल अजमेर का मैदान छोड़ने को तैयार नहीं हैं। देवनानी उम्रदराज होने के बाद भी एक बार फिर नौजवानों की तरह भाग-दौड़ में जुटे हैं। वही, बहनजी भी पक्का पट्टा लिखवाने की मशक्कत में जुटी हैं। यह अलग बात है कि निकाय चुनावों में भदेल के गृह वार्ड 45 में निर्दलीय की जीत और भाजपा का तीसरे नंबर पर रहना इस बात का प्रमाण है कि भदेल के जादू पर ग्रहण लग चुका है।
इस सबके बावजूद दोनों नए चेहरों को मौका देने की बजाय राजयोग का मोह नहीं छोड़ पा रहे। पार्टी से फिर टिकट हासिल कर लेने के आत्मविश्वास में चुनावों के ऐलान से पहले ही अगली पारी की तैयारी में जुट गए हैं। जनता के दुख दर्द, उनसे निकटता दिखाने की कवायद में दोनों कोई कसर नहीं छोड़ रहे। लेकिन टिकट कटने का अनजान सा भय भी पीछा नहीं छोड़ रहा है। कैडर बेस पार्टी का दावा करने वाली भाजपा के इन दोनों सेनापतियों को अपनों से ही चुनौतियां मिलने लगी हैं।
इधर, एक अनार और सौ बीमार वाली तर्ज पर कांग्रेस में टिकट के दावेदारों की लंबी होती जा रही फेहरिस्त ही उसके लिए मुसीबत का कारण बनती दिख रही है। नि:संदेह कांग्रेस का टिकट पाने वाले को भाजपा के साथ ही अपनी ही पार्टी के कारसेवकों से भी मुकाबला करना होगा। अजमेर उत्तर में चुनाव से पहले लात घूंसों का ट्रेलर सबने देखा है, पिक्चर का मजमून इसी में छिपा है। अजमेर दक्षिण में तूफान से पहले की शांति भंग होने में देर नहीं। क्योंकि ‘खा नहीं सका तो ढोल दूंगा’ की तर्ज पर ये कारसेवक नैया डुबाने में पूरी ताकत झोंक देंगे। इन हालात में कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए जीत का वरण किसी चमत्कार से कम ना होगा।
बात प्रदेश की…
समूचे राजस्थान को लेकर भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी पसोपेश की स्थिति में है। इस बात की चर्चा जोर पकड़ रही है कि वसुंधरा राजे को अघोषित रूप से बाहर रखकर विधानसभा का चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़ा जाएगा। राजनीति के जानकारों की मानें तो राजे के बगैर इस बार भाजपा चुनावी वैतरणी पार करने का जोखिम उठाने जा रही है। ऐसे में भाजपा के लिए विजयी रथ को मंजिल तक पहुंचाने के लिए नए चेहरों को आगे लाना जरूरी हो गया है।
प्रदेश में एक-एक सीट का विश्लेषण का दौर चल रहा है, जीत का गुणा भाग लगाया जा रहा है। मैडम के आज्ञाकारी रहे नेताओं को किनारे करना हालांकि आसान नहीं, बीच का रास्ता तलाशा जा रहा है। कांग्रेस में गहलोत और पायलट के बीच अंदरखाने चल रहा शीतयुद्ध भाजपा का मनोबल जरूर बढ़ाए हुए है, लेकिन इसके पटाक्षेप होते ही राजनीतिक समीकरण बिल्कुल बदल जाएंगे। वर्तमान परिदृश्य से तो स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों की जंग पहले अपनों से होगी, जो इसमें पार लग जाएगा वो चुनावी समर का असल विजेता होगा।
अंदरखाने की मानें तो सवाई माधोपुर के चिंतन शिविर में यह तय था राजस्थान में 4 स्थानों से परिवर्तन यात्रा निकाली जाएगी। इसका नेतृत्व किसको सौंपा जाए इसको लेकर खींचतान चल रही है। दो सितंबर से परिवर्तन यात्रा शुरू होनी है। रोड मैप भी तैयार हो चुका है पर जंग के ऐलान के साथ सेना का सेनापति कौन हो, बात इस पर अटकी है। बीजेपी के पक्ष का माहौल बनाने के लिए खुद प्रधानमंत्री मोदी परिवर्तन यात्रा के समापन पर विशाल जनसभा में आ सकते हैं।
इस बीच वसुंधरा राजे के भविष्य के साथ मैडम-मैडम का राग अलापने वालों का फैसला भी हो जाएगा। लालबत्ती में सवार होने के बाद संघ से नजरे फेरकर सत्ता मद में डूब जाने वाले नेताओं का मुगालता भी दूर होने में अब देर नहीं है। अजमेर का ही उदाहरण लें तो 15 साल पहले स्थानीय नेताओं का दरकिनार करते हुए भदेल और देवनानी को संघ कोटे का मानकर राजनीतिक क्षेत्र में उतारा गया। इस बार संघ का दखल हुआ तो बड़ा उलट फेर हो सकता है, भले ही इसमें अपनों की बलि ही क्यों ना देनी पड़े।
समीक्षा हो रही है लगातार जीत हासिल करने वाले विधायकों से जनता कितनी संतुष्ट है। अजमेर में संगठन निष्ठा की बजाय व्यक्ति निष्ठा में तब्दील हो चुकी कार्यकर्ताओं की फौज बेलगाम होती नजर आ रही है। भाजपा के वयोवृद्ध और जनसंघ के जमाने से जीवन खपाने वालों कोे भुला दिया गया, नई पीढी तो उम्र के आखिरी पडाव पर पहुंच चुके वयोवृद्ध कार्यकर्ताओं को पहचानती भी नहीं। कभी संघ के अनुषांगिक संगठन पुरजोर तरीके से ताकत झोंककर भाजपा की चुनावी नैया को पार लगाने में अहम भूमिका निभाते थे। अब वे भी अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। जीतने के बाद नजर फेर लेने वाले नेताओं से हर आम और खास भी आहत हैं।
विजय सिंह
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