राजनीति। लोकतंत्र के महापर्व पर जनता टकटकी लाए इधर उधर झांकती रही और भारत की ढांचागत रुप रेखा को बदलने की बयानबाजी और राजनेताओं की सुली पर अपने विचारों को चढ़ाती रही। हालांकि अब बदलाव नजर आ रहा है। खुद को अंधेरे में रख जनता किसी की झोली में अपने देश को रखने की कोताही नहीं करती। राजनेता और राजनीति दलों की भाग्य विधाता पब्लिक चुनावी बयानबाजी और फुहड़पन से प्रभावित नहीं होती। उसे पता है कि इससे देश का मॉडल बदल सकता, बदलाव के लिए काम की जरूरत है।
आम आदमी का सबसे बड़ा मुद्दा होता है महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार, ये भ्रष्टाचार की उत्पत्ति चूंकि चुनावी खर्च की देन है। राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के खर्चों का जुगाड जनता के हक मारकर करते हैं। नेता बड़ी बड़ी बातें करके जनता को लुभाते हैं। इस सबकेे बीच यदि फायदा अगर किसी को होता है तो वो है कारपोरेट जगत।
सच पूछा जाए तो चुनाव की पूरी प्रक्रिया ही गलत है, जनता को फोकस कर मत लूटाने का मजबूर करना और उसे बरगलाने की कोशिश तथा वादे कर मुकरना यही गंदी राजनीति है।
बुद्धिजीवियों का मानना है देश के हित को ध्यान में रख अपने नेताओं को वोट दे, लेकिन उम्र गुजर जाती है ये समझने में कि देश के सभी नेतृत्वकर्ता आखिर हैं कौन?
वास्तव में सभी दलों और नेताओं की एक ही मंशा रहती है जनता के बीच उनका सेवक बनकर राजतंत्र में प्रवेश करना। चाहे इसके लिए कितना भी झूठ क्यों न बोलना पडे। इन लोगों पर यकिन करने के अलावा जनता के पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है।
कभी कभी जनता में से ही कुछ लोग अपना आक्रोश निकालने के लिए राजनेताओं पर जूते तो कभी थप्पड़ दे मारते हैं। जनता का मनोविज्ञान बताता है किस हद तक जनता जनता अपने आप को छला हुआ महसूस करती हैं।
अब छात्र नेता कन्हैया कुमार की बात कर लिजिए, राजनीति के खिलाफ लडते लडते वह खुद इसका भाग बन गए। ये दुर्भाग्य की बात नहीं तो क्या है। एक छात्र जो देश का भविष्य है, देश निर्माता हैं, अब अपना प्रतिद्वंद्वी प्रधानमंत्री को मान रहा है। बहरहाल ये राजनीति तो प्रतिद्वंद्वियों का अखाड़ा है देखें किसकी चित किसकी पट होती है।
राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा गरम है कि इन चुनाव में भाजपा फिर सत्ता में आती है तो मुश्किलें बढ़ेगी। भाजपा विकास और सिर्फ विकास का राग अलापने में व्यस्त हैं। जबकि इस विकास में पनप रही गरीबी और बेरोजगारी भीतर ही भीतर नासूर बनती जा रहा है। सरकार बदल भी जाएगी तो भी कुछ नया होता नजर नहीं आ रहा। देश में बुनियादी समस्याओं का हल विकास से कहीं अधिक आवश्यक है।
वर्तमान चुनाव परिदृश्य देखें तो सभी अपनी पार्टी की गुनगान करने में व्यस्त हैं, जैसी लहर वैसी शहर यानि भाजपा की लहर से अन्य सभी पार्टियां भयभीत हैं। भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमीत शाह अपने रणनीति से सभी दल को पस्त करते नजर आ रहे हैं।
देश विकसित हो रहा है यह बात सच है लेकिन बेरोजगार युवाओं की लम्बी कतार उसके इस कुटनीति को खारिज न कर दे क्योंकि बयानबाजी से कुछ नहीं होता, अपने किए गए वादे को धरातल पर उतारना होगा अन्यथा आपको जनता कतई नहीं माफ करेगी।