हरिद्वार। महाकुम्भ का नाम ही अपने आप में रोमांचकारी है। इसमें बहुत सारे रंग देखने को मिलते हैं। साधु-सन्तों से लेकर अन्य सन्यासियों तक की श्रंखला को यहां अपनी आंखों से देखा और अनुभव किया जा सकता है।
कुम्भ में विभिन्न अखाड़ों या कहें सन्तों की छावनियों में संन्यास और गुरू ज्ञान प्राप्त करने की दीक्षा चल रही है। इसमें सैकड़ों सन्यासी सन्तों ने न सिर्फ गुरू ज्ञान, बल्कि अनेक ने नागा सन्यासी की भी दीक्षा ली है।
मेले में एक सामूहिक दीक्षा समारोह भी चल रहा है। हजारों लोगों ने अपने बाल मुंडवा लिए हैं। मात्र सिर के पीछे एक शिखा छोड़ रखी है और स्वयं अपना ‘पिंड-दान’ यानि ऐसा अनुष्ठान, जो केवल मृत्यु के बाद मृतक की आत्मा की शांति के लिए होता है, को कर रहे हैं।
अब इस समारोह के बाद यह सभी नागा साधुओं के प्राचीन और गौरवशाली समूह में शामिल हो जाएंगे। यह ऐसे साधु बन जाएंगे, जो सनातन धर्म की रक्षा के लिए आधुनिक कमांडो जैसे कठोर और आक्रामक होंगे।
विभिन्न स्तर से मिली जानकारी के अनुसार, संतों के 13 अखाड़ों में सात अखाड़े ही नागा साधु बनाते हैं। जिनमें जूना, महानिर्वाणी, निरंजनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा नागा साधु बनाने की प्रक्रिया करवाते हैं।
जूना अखाड़े के आचार्य महामण्डलेश्वर अवधेशगिरी महाराज का कहना है कि यह आम प्रक्रिया नहीं है। यह बहुत ही कठिन तप और संयमित प्रक्रिया है। जिसके लिए 12 साल की एक लंबी अवधि गुजारनी पड़ती है।
देश के प्रति नगा साधुओं का योगदान राजा-महाराज भी संकट के समय अखाड़ों के नागा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई युद्धों का वर्णन मिलता है, जिनमें 40 हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने भाग लिया।
अहमद शाह अब्दाली के मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण करने पर नागा साधुओं ने मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की थी। भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया, लेकिन अखाड़ों के प्रमुखों ने भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करने का आदेश दिया।