चौमासा :
सत्य युग कहें या संत युग, इस दौर में कुदरत के विधि-विधानों का वैज्ञानिक मूल्यांकन करने के बाद ऋषियों ने एक ऐसी जीवन पद्धति तैयार की जिसको आज सिर्फ हम हिंदुस्तानी ही नहीं बल्कि सारी दुनिया उस शैली को अपनाने के लिए बेताब नज़र आ रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि हमारी संस्कृति में हर मौसम के अलग-अलग विधान हैं। अब जैसे बारिश का मौसम शुरू हो गया है तो इन चार महीनों के लिए सभी धर्मों में थोड़े-बहुत अंतर के साथ “चातुर्मास” की वैज्ञानिक पद्धति से जिंदगी तय की गई है।
आमबोलचाल की भाषा में चातुर्मास को चौमासा कहते हैं। चौमासा यानि चार महीने। अंग्रेजी महीनों के हिसाब से जून-जुलाई, जुलाई-अगस्त, अगस्त-सितंबर और सितंबर-अक्टूबर, चौमासा कहलाते हैं। ये विभाजन इसलिए है क्योंकि हिंदी महीने चंद गणनाओं के हिसाब से चलते हैं। मध्य जून से आधा आषाढ़, श्रावण या सावन, भादों और आश्विन या क्वार और आधा कार्तिक, में हैं चौमासा।
पत्रा के मुताबिक आषाढ़ की शुक्ल पक्ष एकादशी से चौमासा शुरू होता है। हमारी संस्कृति की एक खासियत है कि कोई भी काम हम किसी न किसी पर्व से करते हैं और समापन भी हर्षोल्लास के साथ करते हैं। इसी तरह चौमासा या चातुर्मास का शुभारंभ देव शयनी एकादशी पर्व से करते हैं। इसका सीधा-सा और साधारण-सा मतलब ये है कि बारिश के चार महीनों में भगवान के साथ-साथ आम इंसान भी आराम करें। वनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए काम करें।
तो शुरुआत हमने एक लक्ष्य साधकर कर दी। अब चौमासे को विदा भी हमारी संस्कृति में गौरवशाली होती है। कार्तिक के शुक्ल पक्ष की एकादशी को हम आदर सहित जगाते हैं और मनाते हैं – देव उठनी एकादशी । यहां ख़ास बात ये है कि इस चौमासे में शादी-ब्याह, गृह – निर्माण, गृह-प्रवेश, नया व्यापार, आदि कोई भी नया काम नहीं करते और जो काम पहले से चला आ रहा है उसे रोकते नहीं। देवताओं को जगाकर, विधिवत् पूजा अर्चना करके नये काम का शुभारंभ किया जाता है।
आचार-व्यवहार :
कुदरत से जिंदगी की बारिकियों को समझने वाले बड़े-बुजुर्गों ने हर व्रत-त्यौहार के लिए कठोर विधि-विधान बनाएं ताकि हर पीढ़ी सेहतमंद रह सके। चौमासा की गंभीरता को देखते हुए इस अवधि के लिए भी सख्त कानून या विधान रचे गए।
स्नान :
स्त्री-पुरुष जो भी पूर्ण विधि-विधान के साथ ये व्रत करेगा, उसके लिए ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करना अनिवार्य है। मतलब भौर में चारपाई या पलंग छोड़कर सूरज निकलने से पहले नहा लो, स्वच्छ वस्त्र धारण करो और पूजा-अर्चना संपन्न क्यों। चारों महीने एक जैसा क्रम बनें रहना चाहिए। परंपरा के अनुसार सावन में भगवान श्रीकृष्ण पूजा-अर्चना की जाती है और कार्तिक मास में तुलसी की आराधना करने का विधान है।
फलाहार :
चौमासा हमारी पाचन शक्ति की परीक्षा का सबसे अच्छा तरीका है। क्योंकि ये चार महीने जलतत्व की प्रधानता वाले हैं। जहां एक ओर पानी हमारे शरीर के लिए बेहद जरूरी है तो दूसरी ओर दूषित पानी, जलयुक्त फल, तला-भुना, गरिष्ठ भोजन, प्याज, लहसन, बैंगन, शाक, दूध-दही, मांस-मछली, शराब, और दाल आदि के सेवन से बचना चाहिए क्योंकि ये सेहत के लिए नुकसानदायक होती है।
क्षेत्रानुसार या किसी अन्य कारण से ये परंपरा है कि इन चार महीनों में सिर्फ एक वक्त ही खाना खाना चाहिए। इसके पीछे कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं है और न ही धर्म शास्त्रों में ऐसा कोई प्रावधान है।
अंधविश्वास :
सनातन धर्म अपनी प्राचीनता और संस्कृत भाषा के विलुप्त प्राय: होने के कारण अंधविश्वास का भयावह अंधकार समाज में फैला हुआ है। चौमासा में चप्पल न पहनना, दाढ़ी न बनवाना, बाल न कटवाना, नाखून न काटना, जैसी मनोवृत्ति समाज में घर कर गई है।
मौलिकता :
चौमासा परंपरा का जन्म आर्यवर्त में हुआ। विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने के बाद इस व्यवस्था को समाज को सौंप दिया गया।
समाज के प्रबंधकों ने समय के अनुसार इस व्यवस्था में अनेक परिवर्तन किए। सभी सेहतमंद रहें इसलिए चौमासा परंपरा शुरू हुई। कालान्तर में इसके साथ कौन-कौन से पर्व-त्यौहार जुड़े आइए जानते हैं –
आषाढ़ मास की – शुक्ल पक्ष देवशयनी एकादशी व्रत, गुरु पूर्णिमा आदि पर्व आते हैं।
मेला परंपरा : आषाढ़ मास में अनेक मेले आयोजित किए जाते हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं –
1.शिरडी वाले साईं बाबा,
2.सत्य साईं बाबा,
3.गजानन महाराज,
4.धुनी वाले दादा, और
5.आज तथाकथित आधुनिक गुरु अपने-अपने आश्रमों में श्रद्धालू मेला आयोजित करने लगे हैं।
सावन के महीने में – रक्षाबंधन, नाग पंचमी, हरियाली तीज एवं, श्रावण सोमवार व्रत कब चलन में आते पता नहीं।
मेला : अनेक महानगरों में “हरियाली तीज” पर मेला लगाया जाता है। जिसमें महिलाएं झूला झूलने के साथ-साथ चाट-पकौड़ी का भी लुत्फ उठातीं हैं।
भाद्रपद में आने वाले तीज-त्यौहार है – कजरी तीज, हर छठ, जन्माष्टमी, गोगा नवमी, जाया अजया एकदशी, हरतालिका तीज, ऋषि पंचमी, डोल ग्यारस, अन्नत चतुर्दशी, पितृ श्राद्ध आदि ।
अश्विन माह में – पितृ मोक्ष अमावस्या, नव दुर्गा व्रत, दशहरा एवं शरद पूर्णिमा आदि पर्व आते हैं।
इस माह को कुंवार का महीना भी कहा जाता हैं।
कार्तिक मास के पहले पंद्रह दिन त्यौहारों से भरपूर हैं – पंच दिवसीय दीपावली महापर्व, गोपा अष्टमी, आंवला नवमी, देव उठनी ग्यारस जैसे त्यौहार आते हैं। ध्यान देने बात ये है कि चौमासा में आने वाले तीज-त्यौहार क्षेत्रीय मान्यताओं और परंपराओं के अनुरूप है। सारे देश में ये नहीं मनाए जाते।
चौमासा अधिमास या पुरुषोत्तम : हर चौथे साल एक मास अधिक होता है। यानि बारह की बजाय तेरह महीने होते हैं। कब कौन-महीने के बाद अधिमास होगा चंद्र गणनाओं के पश्चात तय किया जाता है। यदि चौमासा में अधिमास पड़ेगा तो ये देखा गया है कि वो भाद्रपद मास ही होता है।
धर्मगत चौमासा : चौमासा परंपरा सामाजिक संस्कृति उस समय बन गया था जब धर्म नामक संस्था का गठन नहीं हुआ था। इस लिए आर्यवर्त में जन्मे सभी धर्मों में चातुर्मास का उल्लेख मिलता है। पुण्य, महत्त्व, विधि-विधान आदि सब अलग-अलग हैं।
अभी तक जो आपने पढ़ा वो सनातन धर्म और संस्कृति का हिस्सा है। जैन धर्म को मानने वाले पूरे चौमासा में मंदिर जाकर धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। अपने घर पर, जैन मंदिर में, पंडालों में, या फिर जैन आचार्यों के आश्रमों में सत्संग का आनंद लेते हैं। इसी तरह बौद्ध धर्म में भी चौमासा की महत्ता बौद्ध समुदाय में है।
नया चलन :
सनातन धर्म विज्ञान का दूसरा नाम है। एक वैज्ञानिक जीवन शैली है। पुरातनकाल में धर्म संबंधी मामलों में समाज अंधविश्वास से मुक्त था। विज्ञान को समझते हुए विधि-विधान से तीज-त्यौहार मनाए जाते थे।
समय के साथ पद्धतियों में बदलाव होते चले गए और आज सिर्फ चौमासे में ही नहीं बल्कि किसी भी पर्व-उत्सव पर गीता पाठ, सुंदर कांड, भजन एवं रामचरितमानस का करने की परंपरा बन गई है। यह शास्त्र सम्मत नहीं है बल्कि पुरोहित सम्मत है।