सबगुरु न्यूज। चंग बन कर बसंत रूपी नायिका फाल्गुन की मीठी हवा के थाप का इतंजार कर उमंग के स्वर फैलाने के लिए बेताब होकर धीरे धीरे अपने प्रेमी फाल्गुन से मिलने के लिए काली रातों को छोड़ चांदनी रातों की चांदनी में फाग रूपी चूंदडी “फाग” (एक झीनी झीनी गुलाबी रंग की चुनर) को ओढ़े आगे बढ़ रही है।
दूर से अपनी बसंत रूपी प्रेमिका को आती देख फाल्गुन के मन में भी एक मीठे मिलन का प्रेम जाग जाता है। वह उत्तेजित होकर फाग के गीत गाकर अपनी प्रेमिका को रिझाता है और कसे हुए चंग पर थाप देकर प्रेम रूपी संगम के स्वर फैला कर सबको मद मस्त कर देता है।
फाल्गुन की उस राग रागनी में सभी मस्त होकर सब कुछ भूल जाते हैं और सभी एक होने का संदेश देकर ऊर्जा को बढाने के लिए एकत्र होकर चंग की थांप पर गेर (लकड़ी के डंडे) खेलते हुए सामूहिक ऊर्जा को बढाते है। यह बढी हुई सामूहिक ऊर्जा काम, क्रोध और बैर भाव को खत्म कर विभिन्नता में एकता के भाव भरकर सबको प्रेम के रंगों में रंग देती हैं। यहीं काल साधना का पर्व बन जाता है, जो आने वाले कल को नव रात्रि में बदलकर एक नए काल की शुरूआत नए वर्ष के रूप मे करती हैं।
संत जन कहते हैं कि हे मानव प्रकृति के इन गुणों से जो प्राणी विमुख होने लगता है तो फिर यह बसंत रूपी नायिका फाल्गुन के चंग लेकर भले ही नाचे गाए लेकिन गेर रूपी डंडे सामूहिक ऊर्जा बढाने के स्थान पर बेरी बनकर आपस में झगड़े के डंडे बजाकर उस सामूहिक ऊर्जा को नकारात्मक बना देंगे और विभिन्नता में फिर एकता नहीं एक खतरनाक विखंडन ही होगा। होली के बहाने बैर बदले ही निकाले जाएंगे।
इसलिए हे मानव तू बंसत रूपी यौवन का स्वागत कर ओर फाल्गुन रूपी ऊर्जा से इसका मिलन करा तथा ऊर्जा के उस चरम तक पहुंच जहां सभी एक होकर तेरे साथ सामूहिक ऊर्जा को जगा कर सब में हम की भावना पैदा कर सकें। सब बैर के गेर नहीं प्रेम और प्रीति के गेर खेलें क्योंकि तू ‘सबसे पहले मानव’ है और बाकी सब व्यवस्था गोण है।
सौजन्य : भंवरलाल