सबगुरु न्यूज। पूर्णिमा का चन्द्रमा शनैः शनैः अपनी कलाओं का बदलता हुआ अपना आकार छोटा करता रहता है और एक दिन वो अपना अस्तित्व खोकर उस बेला में पहुंच जाता है जहां केवल ओर मात्र केवल अंधेरा होता है। वो काल अमावस्या बन सबको अंधेरे में डाल देता है। पूर्णिमा के अनंत उजाले के बाद अंधेरे का यह मंजर जमीनी हकीकत को बयां करता है।
बसंत की पूर्णता और फाल्गुन के रंग से सनकर सब रंगों की उस दुनिया में पहुंच जाते हैं जहां तरह तरह के अपने गुणों का विलय कर सभी रंग एक हो जाते हैं और हम की भावना की पूर्णिमा बन वैमनस्यता नफ़रत ओर बैर विरोध को होलिका की आग मे दहन कर देते हैं, दुश्मन भी गले मिल जाते हैं।
सदियों से वही बसंत वही फाल्गुन आता रहा, शमशानी बैराग बन सब एक होते रहे और शमशान के बाहर निकलते ही शनै शनै बैराग उतरने लग जाता है। पूर्णिमा के चांद के बाद वो एक एक कर के कलाएं क्षीण होती जाती हैं और प्रेम, उमंग, मोहब्बत, भाईचारे के रंग चार दिन की चांदनी बन फिर वहीं अंधेरी रात अमावस्या की बन जाती। काश ऐसा ना होता तो दुनिया में कभी बैर विरोध आंतकवाद, विवाद कभी पैदा ही नहीं होता।
प्रेम, भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग के रंग जिस पर चढ़ जाते हैं वे भी फिर उतरते नहीं है और दिन दिन सुरंग हो जाते हैं। यही अवस्था दिल पर चढे रंग की होती है। शरीर पर चढे रंग तो शनैः शनैः उतर जाते हैं और हर मौसम मन बहला कर चला जाता है।
हिरण्यकषिपु के कुशासन का अंत का कारण प्रह्लाद बना और होलिका व हिरण्यकषिपु के अंत की होली जली। उन पर रंग गुलाल डाल कर सदा के लिए विदा कर दिया ओर नए राजा को बना कर, उसका विजयी जुलुस निकाल उस पर खुशी की गुलाल उछाल सुशासन की शुरुआत की।
काल चक्र बढता गया, सुशासन का रंग भी बदलता गया फिर कुशासन व सुशासन भी लगातार ऋतुओं की तरह बदलते रहे। सुशासन का रंग कभी सुरंग नहीं हुआ।
संत जन कहते हैं कि हे मानव प्रेम भाईचारे के पक्के रंग से रंग ओर मन की मलिनता को धो तभी तेरे पर चढ़े रंग सुरंग बन सकेंगे। नही तो फाल्गुन के रंग की पूर्णिमा शनैः शनैः अमावस्या बन कर रह जाएगी और बसंत तथा होली का मिलन उस फरेबी प्रेम की तरह रह जाएगा जो सीमा लांधने के लिए बेताब होकर प्रेम दर्शा गया और प्रेम की दुनिया से मुंह मोड़ लिया।
सौजन्य : भंवरलाल