Warning: Constant WP_MEMORY_LIMIT already defined in /www/wwwroot/sabguru/sabguru.com/18-22/wp-config.php on line 46
तू काई जाणे बावला या देवा की रीत - Sabguru News
होम Religion तू काई जाणे बावला या देवा की रीत

तू काई जाणे बावला या देवा की रीत

0
तू काई जाणे बावला या देवा की रीत

सबगुरु न्यूज। धूर्त ओर लोभी व्यक्ति अपने फटे हुए भाग्य के कपडों को देख हैरान हो जाता है। तब वह एक बदनीयत चाल चलकर, सज्जनता व सरलता का चोला पहन लेता है और अपने भाग्य के फटे कपड़े पर पैंबंध लगवाने के लिए दर दर भटक रहता है। इंसानों से जब उसकी पार नहीं पडती है तो वह ‘देवों के देवरे’ पहुंच जाता है।

उनके शंतरज की गोटियो के फल में देव नहीं वरन् मानव थे। देव तो केवल चोसर का नजरी नक्शा था। उन्हें विश्वास था कि मानव ही फटे भाग्य के कपडों पर पैबंद लगा सकते हैं। लोभ सदा उम्र पर भारी पडता है और धूर्तता के पास ‘विश्वास’ गिरवी पड़ा रहता है। इन गोटियों से वह चोसर पर भावुक बन अतिक्रमण कर लेता है और अपने मक़सद की मंजिल बना लेता है।

देवों की रीत केवल पढी या सुनी गई है, पर देवों की रीत क्या है, देव क्या है, यह स्वयं एक बिना हल होने वाला सवाल है? लोभ और धूर्तता तो केवल मानव की रीत को ही जानती है। उसका मकसद भी केवल मानव को मोह लेना होता है और अपने मकसद में पूरा कामयाब हो जाता है। इस लोभ और धूर्तता के खेल को देख ‘देव’ भी मुस्करा जाते हैं और मानव को सारी छूट देकर सर्वत्र विजय पताका फहराने के लिए छोड़ देते हैं।

लोभ और धूर्तता सर्वत्र हवा के साथ उडकर अपना परचम लहराती है। फिर दानव रूपी आंधी आती है और लोभ तथा धूर्तता की पताका को उड़ाकर ले जाती है। आंधी निकल जाने के बाद लोभ और धूर्तता अकेली ही रह जाती है और उसका मानव अपनी जान बचाने के लिए भाग जाता है।

संत जन कहते हैं कि हे मानव यह सारी कथा केवल प्रकृति और जीव व जगत पर आधारित है। मानव भाग्य को बदलने के लिए नकारात्मक मूल्यों को ग्रहण कर लेता है और कर्म के मार्ग से विमुख हो जाता है। हर हथकंडे को अपनाता हुआ वह मानवीय मूल्यों के विपरित चला जाता है। शकुनि के पाशे में उलझ कर दुर्योधन बन जाता है और कर्म रूपी श्रीकृष्ण का विरोधी बन जाता है, उससे भाग्य छीनने का असफल प्रयास करता है।

कर्म के हाथ में सुदर्शन चक्र रूपी भाग्य फिर नकारात्मक मूल्यों को खत्म कर उस लोभ और धूर्तता को मिटा देता है। अपना अस्तित्व बता कर संदेश देता है कि हे मानव, मैं भाग्य हू। तू मेरे पीछे मत दोड। कर्म के उस मार्ग की ओर बढ़ जहां लोभ ओर धूर्तता ना हो। भले ही मैं तुझे नहीं अपनाऊ पर कर्म के अखाडे में तेरा सम्मान हो जाएगा क्योंकि “मैं देव हूं और मेरी रीत नहीं जानता मैं कभी भी कहीं भी कुछ भी कर सकता हूं इसलिए लोग मुझे भाग्य कहते हैं। इसलिए हे मानव तू अपने कर्म का चयन गंदी सोच से मत कर। तेरा भाग्य खुद ही तुझे पुकारेगा।

सौजन्य : भंवरलाल