सबगुरु न्यूज। व्यक्ति परिवार समूह मिलकर सामूहिक हितों को साधने के लिए एकत्र होते हैं तो व्यक्तियों का वह समूह समाज कहलाता है। यह समाज कैसे कार्य करेगा उसके लिए नियम, व्यवहार, सम्बन्ध, रीति नीति, सामाजिक मूल्य, संस्कृति, मान्यताएं, विश्वास, परम्परा, धर्म, कर्म आदि का निर्माण किया जाता है।
इन्हें जीवित रखने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक व वैज्ञानिक व्यवस्थाओं का निर्माण किया जाता है। इन सब का अध्ययन जिस शास्त्र में किया जाता है वह शास्त्र, समाज शास्त्र कहलाता है।
मानव समाज व पशु समाज में चौदह मनोवृत्ति समान होती हैं लेकिन पंद्रहवी मनोवृत्ति संस्कृति केवल मानव समाज में ही होतीं हैं, इस कारण मानव समाज व पशु समाज में अंतर हो जाता है और जब वर्ग विशेष व जाति विशेष अपने अलग समाज का निर्माण करते हैं तो वह समाज नहीं केवल अपना “एक समाज” कहलाता है।
सामाजिक सम्बन्धों का ताना बाना ही समाज होता है और उसकी आधार शिला संस्कृति होती है। यह संस्कृति भी अभौतिक व भौतिक होती है अभौतिक संस्कृति में मूल्य, व्यवहार, प्रति मान, मानदंड, रीति रिवाज, मान्यता, श्रद्धा, आस्था, विश्वास आदि होते हैं और भौतिक संस्कृति से में मानव द्वारा बनाई तकनीक निर्माण आदि होते हैं।
इन दोनों संस्कृति में से भौतिक संस्कृति में दिनों दिन बदलाव आता है और समाज द्वारा वह स्वीकार ली जाती है पर संस्कृति के अभौतिक मूल्यों में बदलाव के लिए बरसों बीत जाते हैं और भौतिक संस्कृति और अभौतिक संस्कृति में यही मतभेद छिड जाते हैं। अभौतिक संस्कृति का समाज परम्परावादी समाज तथा भौतिक संस्कृति का अनुसरण करने वाला आधुनिक समाज बन जाता है। संस्कृति के अभौतिक व भौतिक मूल्यों मे विचलन शुरू हो जाता है और संस्कृति का यह संघर्ष पतन की बढने लग जाता है।
यही कारण होता है कि परम्परावादी समाज अपने धर्म, कर्म, मूल्यों को लेकर चलता रहता है और आधुनिक समाज भौतिक क्रांति कर बड़ी तेजी से आगे बढ़ जाता है। एक ही घर में दो समाज जन्म लेकर अपने अपने मूल्यों के लिए लाठी भांटा जंग करने लग जाते हैं। परिवारों का पतन होने लगता है और धार्मिक मान्यताओं के ग्रंथ व उनके विश्वास बदल जाते हैं। भौतिक संस्कृति में यह महस कथाएं बनकर रह जाती हैं विज्ञान ही भगवान बन जाता है।
विस्तृत ओर समूचे समाज के कार्यो को अंजाम देने के लिए आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, और वैज्ञानिक व्यवस्थाएं सत्ता के माध्यम से कार्य करती हैं तब प्रतिस्पर्धा के युग में आध्यात्मिक व सांस्कृतिक मूल्य पीछे छूट जाते हैं और उन्हें बराबरी पर लाने के लिए आधुनिक चोले ओढाकर एक संतुलन का प्रयास किया जाता है।
लकिन इन आध्यात्मिक व सांस्कृतिक मूल्यों में वैभवता अपने अवगुण दिखाकर मूल स्वरूप को बिखेर देती है और संस्कृति का यह अपभ्रंश समाजशास्त्र में पतन का परचम लहरा कर एक नए मूल्य को जन्म देकर पतन के समाज शास्त्र का निर्माण कर देता है और मूल सिद्धांत भटक जाते हैं।
सौजन्य : भंवरलाल