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अपनी धरोहर को संजोते प्राकृतिक न्याय सिद्धांत
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अपनी धरोहर को संजोते प्राकृतिक न्याय सिद्धांत

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अपनी धरोहर को संजोते प्राकृतिक न्याय सिद्धांत

सबगुरु न्यूज। रचना करने मे जो प्रकृष्ट है वह प्रकृति कहलाती हैं। यह क्यो ओर कैसे बनी यह सदा से अनुत्तरित सवाल है। हालांकि धर्म, विज्ञान और दर्शन ने अपनी-अपनी मान्यताओं, अनुभवों ओर अनुसंधानों से इस बारे में विशद व्याख्या की है लेकिन वे सब एक बेहतरीन जवाब बनकर ही रह गए हैं, शमां ओर परवाने के खेल की तरह। शमा जलती रही और परवाने मरते रहे। शमां भी बदनसीब होती है जिसे शाम होते ही जला दिया जाता है और सुबह होते ही बुझा दिया जाता है, लेकिन प्रकृति सदा प्रकाश मान रही।

प्रकृति को संरक्षित सुरक्षित व संजोए रखने की विश्व स्तर पर कवायद तो की जाती है और मसौदे तेयार किए जाते हैं पर वे कवायदे दानपात्र में जमा धन की तरह रह जाती हैं। स्वभाव वश लोभी और अहंकारी होने की मनोवृत्ति के कारण मानव इस प्रकृति की विरासत की जगह अपने अहंकार की विरासत को जिन्दा रखता है और छोटे से जमीनी टुकड़े पर खनिज सम्पदा और अपना अधिकार दिखा कर कब्जा करने के लिए विश्व युद्ध छेड देते हैं और परिणाम स्वरूप प्रकृति के पंच महाभूत प्रदूषित हो जाते हैं और हर रचना बहुत ज्यादा असंतुलित हो जाती है।

सदियों से आज तक चाहे देव दानवों के युद्ध हो या वर्तमान महाशक्ति शाली देशों के महाविनाश के महायुद्ध हो सभी में प्रकृति की धरोहर को नष्ट करने की कवायद ही पाई गई। प्रकृति ने फिर भी मानव की तरह पलटवार नहीं किया ओर अपने प्राकृतिक न्याय सिद्धांतों के अनुरूप ही व्यवस्था को बनाए रखने के लिए मानव को सब कुछ करने की छूट दी लेकिन जब वो ज्यादा असंतुलित हुई तो उसने संतुलन अपना संतुलन बनाए रखने के लिए अतिवृष्टि, ओलावृष्टि, तूफान, भूकंप, भूस्खलन, ज्वालामुखी, अनावृष्टि, सूखा, वर्षा का असमान वितरण, वायु प्रकोप आदि जैसे गुणों को प्रकट कर माहौल को शुद्ध करने के लिए अत्यधिक गर्म व ठंडा बनाकर अपने आप को संरक्षित सुरक्षित व संजोए रखने के लिए सदा प्रयास किए। इनको मानव प्राकृतिक प्रकोप समझने लगा फिर भी हर स्थिति परिस्थिति में मानव ने मानव ने प्रकृति का जमकर लुत्फ़ लिया।

संत जन कहते हैं कि हे मानव तू भी प्रकृति की एक श्रेष्ठतम रचना है और इस रचना को संरक्षित सुरक्षित व संजोए रखने के लिए प्रकृति के गुण धर्म के अनुसार व्यवहार कर तथा हर जीव व मानव के मूल्य को पहचान तथा दयावान बनकर इन्हें संजोए रख। थोडे स्वार्थ के लिए प्रकृति के संविधान को बदलने की कवायद मतकर क्योंकि प्रकृति तेरी व्यवस्था नहीं है वरन् तू प्रकृति की एक व्यवस्था में जी रहा है।

इसलिए हे मानव तू कितना भी अपने को शक्तिमान समझ पर, प्रकृति के सामने तू एक अदना सा ही है क्योंकि तमाम प्राकृतिक प्रकोप रोकने के लिए तेरे पास कोई परमाणु बम नहीं है इसलिए तू मानव को अपने बनाए भारी भरकम अस्त्र शस्त्र से नष्ट मत कर और इस प्रकृति की विरासत को नष्ट विनष्ट होने से बचा।

सौजन्य : भंवरलाल