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प्यार कर ले घडी दो घड़ी

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प्यार कर ले घडी दो घड़ी

सबगुरु न्यूज। जन्म के साथ ही मानव को मनोवृत्ति के रूप में प्यार मिलता है और हर प्राणी को किसी ना किसी व्यक्ति वस्तु स्थान या सोच से स्वत ही प्यार हो जाता है। मन का यह अंजाना समर्पण ही जीवन को असीम आनंद मे खोये हुए रखता है।

कोई तन से कोई मन से कोई धन से कोई पद प्रतिष्ठा ओर सम्मान से कोई स्थान विशेष से तो कोई व्यक्ति विशेष से कोई देव दानव और मानव से तो कोई ज्ञान विज्ञान या विचारधारा से। कोई भौतिक सुख साधनों से तो कोई अभौतिक सुख दुनिया से दूर वैराग्य से।

शरीर में बैठी आत्मा जो मन की इस मनोवृत्ति को निहारती है और कहती है कि हे मानव घड़ी दो घड़ी का समर्पण तू मुझसे से कर ताकि तू कष्टों को काटने वाला कृष्ण बन जाएगा क्योंकि मैं स्वयं राधा हू और मेरा स्वामी कृष्ण है। मेरे प्रति प्यार के समर्पण की घड़ी दो घड़ी तूझे निष्काम प्रेम के अर्थ को समझा देगी ओर तेरे समर्पण को अमर प्रेम का नाम देगी। निष्काम प्रेम की ज्योति ही जगत को प्रकाश मान बनाती है।

प्यार का नाम आते ही मन उस अन्जानी खुशी में खो जाता है और शरीर का रोम रोम जाग्रत हो जाता है मुस्काने लग जाता है मानो वो स्वर्ग के कल्प वृक्ष के नीचे बैठा है और उसके हर अरमान पूरे हो गए हैं और अब उसे किसी की भी कोई जरूरत नहीं रह गई है। प्यार जीवन और उसकी हर परिभाषाओं को मरूस्थल के उस मैदान में छोड देता हैं जहां से वो वापस नहीं आती है।

यही कारण रहा कि प्यार की उन सात अमर जोडियों को आज भी उनके नाम से जाना जाता है। हद और बेहद से भी आगे निकल कर फकीर की तरह तप करता है हुआ नज़र आता है प्यार। जिसने प्यार के फूलों का नकाब ओढा लिया वो भी खो गया ओर जिसनें प्यार में नफ़रत का नकाब ओढ लिया वो भी खो गया। प्यार का अंतिम हश्र मन का आत्मा मे खो जाना ही रहा।

मन जब एकाग्र होकर आत्मा से मिलन कर अपनी सभी सुध बुध खो बैठता है तो बस यही क्षण उसे असीम आनंद की ओर ले जाता है और आत्मा उस मन को प्रकाशित कर अपने में विलय कर लेती है और शरीर एक कठपुतली की तरह हो जाता है तथा आत्मा उसका संचालन करती है। बस यही प्यार का जन्म हो जाता है।

संत जन कहते हैं कि हे मानव तू अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपने कर्म को प्यार की तरह एकाग्रता का लिबास पहना कर अंजाम दे। निश्चित रूप से तेरे लक्ष्यों का फल प्यार बन कर मिल जाएगा और तू अपने कर्म का सफल प्रेमी बन जाएगा।

इसलिए हे मानव तू अपने को कर्म रूपी महबूब समझ ओर लक्ष्य को फल रूपी महबूबा मान ओर एकाग्रता के समर्पण को प्यार मान। कर्म ओर उसकी एकाग्रता का समर्पण ही दो तरफा प्यार की तरह होता है जो अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर लेता है नहीं तो एकाग्रता के समर्पण के अभाव में कर्म एक तरफा प्यार बन कर नफ़रत का नकाब ओढ लेगा और लक्ष्य रूपी महबूबा एक तरफा प्यार से किनारा कर लेगी।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर