सबगुरु न्यूज। काल चक्र उस इतिहास को पीछे छोड़ आया है जहां घृणा को प्रेम से जीता जा सकता था। आज घृणा को प्रेम से जीतना उसपर नाकाम मखमली चादर को ओढाने सरीखा ही होता है। प्रेम के आशियाने में ही मखमली चादर उस नूर की रूहानियत को खुशनुमा बनाती हैं। घृणा के गलियारों में मखमली फूल तो केवल कुचले ही जाते हैं, उन गलियारों की शोभा नहीं बढाते।
नफ़रत की दुनिया को छोड़ कर प्रेम की दुनिया में घुसने के रास्ते बहुत तंग होते हैं। इन तंग रास्तों पर केवल प्रेमी ही सफल होते हैं ना कि प्रेम का चोला ओढ़कर और भीख का झोला डालकर घुसने वाला स्वार्थी प्रेमी।
स्वार्थ के रथ पर बैठ कर प्रेम के फूल बरसाने वाला घृणा को जीतता नहीं है वरन् घृणा को बढ़ाने और बांटने की कवायद करता है ताकि वह आंतरिक घृणा को अपनी घृणा में मिलाकर उस टुकड़े को अपने स्वार्थ का साथी बनाकर उन्हें मान प्रतिष्ठा की गहनों से लादता है।
आज यही जमीनी हकीकत देखने को मिलती है। प्रेम का चोला ओढ़कर हर कोई अपना होने का दावा करता है लेकिन उन प्रेम के चोलों के भीतर एक स्वार्थ के रंगों से रंगा मन होता है जो अपना मकसद हांसिल करने के लिए किसी भी हद तक गिर जाता है। सफल होने पर वापस नफ़रत की दुनिया का बादशाह बन जाता है।
बदलते युग में नैतिक मूल्यों की परिभाषा का पुराना अर्थ अब आदर्श वाक्यों तक ही सीमित रह गए हैं। जमीनी हकीकत के नैतिक मूल्यों में घृणा को घृणा से ही जीतने के रण मैदान बन गए हैं। आज विश्वास लेकर विष देने वाला दानव हाहाकार मचा रहा है।
ऐसे युग में हर मानव लगातार समझता जा रहा है कि अब घृणा को नाकाम प्रेम की मखमली चादर से नहीं जीता जा सकता है, वरन् घृणा को जीतने का मार्ग केवल घृणा ही बनता जा रहा है।
संतजन कहते हैं कि हे मानव भले ही सर्वत्र घृणा के दानव ने हाहाकार मचा रखा है। वह नैतिक मूल्यों की परिभाषा को बदल रहा है पर तू अपने नैतिक मूल्यों को बनाए रख क्योंकि हर युग अपनी विशेषता के अनुसार ही व्यवहार करता है और उनके प्रेम तथा घृणा की परिभाषा अपनी ही होती है।
इसलिए हे मानव तू अपने नैतिक मूल्यों को बनाए रख और प्रेम की चादर ओढ़े रख, भले ही यह फट जाए तब भी इसके धागे सदा गूथे ही रहते हैं।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर