सबगुरु न्यूज। सोने के आभूषण जब शरीर के अंगों को काटने लग जाते हैं तो उनको त्याग देना ही हितकर होता है अन्यथा ये आभूषण व्यक्ति की हैसियत बढाकर उसके अंगों को नासूर बना देंगे और उन नासूर को भरने के लिए आखिर सोने के आभूषणों को त्यागना ही पड़ेगा।
सोने के आभूषण जब शरीर पर राज करने लग जाते हैं तो हर धातु उनके सामने मूल्य हीन होती है और सोना शरीर का बादशाह बन जाता है तथा बारह आने की बात करके काम चार आने का ही करता है। अर्थात चार आने के सोने की सुरक्षा के लिए बारह आने खर्च करने पडते हैं। जो स्वयं ही सुरक्षित नहीं हैं वो दूसरों को सुरक्षित ओर संरक्षित करने के विचार भी नहीं रख सकता है।
हश्र यही होता है कि खिलाया पिलाया कुछ भी नहीं और गिलास फोड दिया बारह आने का। शुद्ध हानि देता हुआ सोना केवल तेजी मंदी के लिए ही करवटे बदलता रहता है और केवल लाभ हानि का ही अपना खेल खेलता रहता है।
कौवों का महत्व तो केवल श्राद्ध पक्ष तक ही होता है उसके बाद उसे घरो पर बैठने पर उडाया ही जाता है, उसी तरह से सोने के आभूषणों की संस्कृति केवल दिखावे तक ही होती हैं। हकीकत की दुनिया में लोहा ही उसे कैद मे रखता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव स्वर्ण धातु में आत्मा नहीं होती है इस कारण वो सभी के लिए हितकारी ओर कल्याणकारी नहीं हो सकता है। स्वर्ण का धातुमान तो केवल सबके हितों को खरीद लेता है और उन्हें अपना दास बना राज करता है और मुद्रा को राक्षस का रूप देकर उसके हाथ में खंजर थमा देता है। मुद्रा के इस राक्षसी रूप से जन जन त्राहि त्राहि करने लग जाता है।
इसलिए हे मानव जब अपनी बनायी व्यवस्थाएं और नीतियों जब अपना ही पतन करने लग जाए तो उन व्यवस्था ओर नीतियों को तुरंत त्याग देना ही हित कर होता है। अन्यथा वो कान में पहने हुऐ सोने के उस आभूषण की तरह हो जाएगा जो कान को काटने लग जाता है। ऐसे कान काटने वाले आभूषण को शीघ्र त्यागना ही हितकर होता है अन्यथा कान कट जाएगा और सोना भी कान के इलाज के लिए बेचना पड जाएगा।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर