सबगुरु नयूज। प्रकृति की महिमा गाते संत जन कहते हैं कि हे मां तू ही आदि है और तू ही अंत है। तेरे ही शक्ति पुंजों को सगुण ओर निर्गुण रूप में विभिन्न शक्ति नामों से इस जगत ने पूजा है। धरती को बनाकर उसे हर तरह से संतुलित किया है और उसमें तू साक्षात रूप से विराजी है।
इस धरती पर अन्नपूर्णा बनने के लिए अग्नि के रूप में सूरज को बनाया है ताकि समस्त जीव व जगत में प्राण रूपी आत्मा बने और वे खाद्यान्न व वनस्पति को पकाकर तेरी रसोई के चूल्हे का काम करे। मन को शरीर के साथ बनाकर तूने जल रूपी चन्द्रमा को उत्पन्न कर खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि के लिए तेरी रसोई का जल बनाया।
जल और आग का संतुलन करने के लिए हवा बनाई जिसको पीकर संसार के सभी जीव व वनस्पति जिन्दा रहते हैं। आकाश को छत के रूप से बना सभी को ज्ञान, बुद्धि और विवेक का एक सुन्दर आश्रय दिया ओर इस जगत को यह बता दिया है कि हे मानव तू सूखी समृद्ध बन कर अपना जीवन बसर कर क्योंकि मैंने तुझे अपनी किसी कायदे कानून ओर सीमा में नहीं बांधा।
इस जगत में जब आग व जल का संतुलन बिगड़ने लगता है तो आग अंहकार का रूप धारण कर लेती हैं और जल तत्व को भाप बनाकर उडा देती है, सर्वत्र गर्मी छा जाती हैं जैसे व्यक्ति के शरीर में जब अग्नि तत्व बढ जाता है तो शरीर के जल को जलाकर जल की आवश्यक मात्रा को असंतुलित कर देता है और शरीर मे अग्नि रोग बढ़ जाता है। यदि जल तत्व बढ जाता है तो अग्नि तत्व को शरीर मे कम करके जल रोग बढ़ा देता है।
यही अग्नि तत्व बढकर दिमाग को अहंकार से भर देता है और व्यक्ति कुशासन की तरफ़ बढ कर आम-जन को हर तरह से परेशान करता है। इस कारण दूसरों में जन्मी घुटन की कसमसाहट और प्रगति की क्षमता तथा प्रेरणा आग की आग पीड़ित होती हुई परमात्मा की ओर झांकती है और न्याय चाहती है।
प्रकृति इस नजारे को देख हैरान होती है कि मानव ने अपने मतलब के लिए मानव को ही कुचल दिया है और मेरे प्राकृतिक न्याय सिद्धांतों को छोड़कर अपनी मनमानी व्यवस्था को लागू कर दी, इससे आमजन पीड़ित हैं।
प्रकृति फिर ऐसे व्यक्ति को जन्म देती है जो कुशासन का अंत करके सुशासन को स्थापित करे और पृथ्वी पर बढे अग्नि तत्व व जल तत्व को संतुलित करें। ऐसे ही व्यक्ति अवतार बनकर कुशासन का अंत कर देते हैं और सर्वत्र आदर्श मानदंड स्थापित करने मे सफल होकर जगत में आज तक पूजे जाते हैं।
एक समय ऐसा ही हुआ जब सिन्धु सागर सभ्यता और संस्कृति में एक राजा ने कुशासन से सबको कुचल कर खुद के बनाए नियम कानून से रहने के अलावा जीवन के हर क्षेत्र में अपना हस्तक्षेप किया। उसने संस्कृति परिवर्तन की अपनी ही परिभाषा बना दी। नहीं मानने वालों को मौत के घाट उतार दिया और सर्वत्र कुशासन को बढा दिया। इस समय सिंधु सागर के पास झूलेलाल का जन्म हुआ ओर शनैः शनैः उस विराट् कद ने उस कुशासन का अंत कर सभी को सुखी और समृद्ध बनाने में मददगार बने।
झूलेलाल ने सदा अपने लोगों को जल ओर ज्योति अर्थात आग में अपना अस्तित्व बताया ओर दोनों को सदा संतुलित रखने व उसमे परमात्मा के निवास का संकेत दिया। चैत्र मास की शुक्ल की द्वितीया तिथि को उनका जन्म हुआ था जो “चेती चन्द्र” के नाम से मनाया जाता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव जहां हर तरह से कुशासन बढ़ जाता है तो विजय के अंतिम बिन्दु से ही उसका पतन हो जाता है। जैसे मधु कैटभ दोनों राक्षस ब्रह्मा और विष्णु जी को मारने के अंतिम बिन्दु पर जगत जननी मातेश्वरी के मोह में फंस गए ओर उनका अंत हो गया ओर दुर्गा सप्त शती की वो अमर कहानी बन गई।
इसलिए हे मानव तू सदा परमात्मा जो स्वयं प्रकृति मे ही छिपे हुए हैं उन से सुरक्षित है इसलिए डर मत निश्चित इस कुशासन का अंत हो जाएगा। उसमें अग्नि तत्व बढ रहा है और तू जल तत्व बढाकर व्यवस्था को संतुलित कर जैसे प्रकृति ने सूरज चांद बनाकर धरती को संतुलित कर रखा है।
सौजन्य : भंवरलाल