सबगुरु न्यूज। अपने बाहरी चरित्र की नक्काशी करता व्यक्ति अपने मन में बैठे अहंकारी रावण को पालता और गाजता रहता है। दूसरों के मन में बसी राम की मूरत को वह कोसता रहता है। इसी खेल में अपने मन मे बसे रावण को, राम का लिबास पहनाकर राम बनने का मंचन करवाता है और असली राम को वन भिजवा देता है।
ऐसा व्यक्ति मन के रावण को राम का लिबास पहना “आईने “में अपने को राम की तरह तो सजा तो लेता है पर मन के चरित्र को बदल नहीं पाते। इसी कारण वह रूप बलदने के बाद भी रावण की तरह ही हरकते कर एक नहीं हर एक मायावी सीता का हरण करता रहता हैं और असली राम जैसे चरित्र को भटकने के लिए मजबूर कर देता।
रावण तो चला गया लेकिन दुनिया को एक बदसूरत दर्पण दे गया जिसमे व्यक्ति खुद को राम और दूसरों को रावण समझने लग गया। इस आयने में अपना चरित्र खूबसूरत ओर दूसरों का चरित्र बदसूरत देखने लग गया।
संत जन कहते हैं कि हे मानव इस नवरात्रा के अंत मे अपने मन के आईने में बैठे उस अंहकारी रावण को मिटा दे और तोड दे तेरे उस मिथ्या दर्पण को जिसमें तू राम का लिबास पहन कर रावण की जगह राम बनकर बैठ गया। याद रख कि बिना लिबास के उन रीछ वानरों को जिनके चरित्र ने राम को उस विजय की ओर पहुंचा दिया।
इसलिए हे मानव तू राम का लिबास भले ही धारण मतकर लेकिन राम के मार्गों का अनुसरण कर। राम तो हर कण कण में बसे हैं। अपने मन मंदिर में राम को बैठाकर तू स्वयं सिद्ध हो जाएगा और एक जगह नहीं तुझे सर्वत्र राम ही राम का नाम नजर आएगा।
सौजन्य: भंवरलाल