सबगुरु न्यूज। प्रकृति को परिवर्तनशील देख कर ज्ञान ने उसे देखा जांचा परखा ओर अपने लगातार अनुभव से उसने जो परिणाम निकाले उसे मानव समाज तक पहुंचा दिया। मानव समाज ने इसे आस्था ओर विश्वास के साथ स्वीकारा तथा इसी आस्था और विश्वास की संस्कृति ने इसे देव मान धर्म की स्थापना की।
आस्था ओर विश्वास की इसी संस्कृति के मानव ने फिर प्रकृति को अदृश्य शक्ति की दृश्य रचना मान इसे पूजने लगा साथ ही प्रकृति देव कहने लगा। प्रकृति की जब किसी ऋतु से वह ज्यादा पीडित होने लगा और प्रकृति के देव को प्रार्थना, वंदना करने लगा साथ ही उसे इतंजार था कि अब प्रकृति चमत्कार करेगी। उसके धैर्य के इंतजार में ऋतु परिवर्तन हो गया, वह इसे चमत्कार समझ इसका प्रचार प्रसार करने लग गया। इसी क्रम में समाज भी दो अलग-अलग मान्यता वाला शनैः शनैः बन गया। एक प्रकृति के रहस्यों को सदा ही खोजता हुआ विज्ञान बन गया तथा दूसरा उस अदृश्य शक्ति के अदृश्य देव को खोजने लगा।
ऋतु परिवर्तन का काल, यमराज की दृष्टि की तरह से दुख देने वाला होता है। अतः ऋतु परिवर्तन के समय व्यक्ति को रहन सहन और खानपान के मामले मे ऐहतियात बरतनी चाहिए। ऋतु परिवर्तन कई कीटाणु को पैदा कर मौसमी बीमारियों को फैला देते हैं।
सर्दी की ऋतु मे शरीर की ऊर्जा को गरम तथा गर्मी की ऋतु में शरीर की ऊर्जा ठंडी रखनी पडती है। होली के बाद चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की सप्तमी तक सूर्य उत्तर गोल की ओर गरमी बढा देता है। सर्दी की ऋतु में शरीर की ऊर्जा गर्म होती है और चैत्र मास में बसंत ऋतु आने से गर्मी बढ जाती है।
गर्मी की ऋतु में शरीर की ऊर्जा को ठंडा रखना पडता है। शरीर की ऊर्जा को अनुकूल रखने के लिए एक दिन ठंडा भोजन किया जाता है ताकि आने वाले ग्रीष्म ऋतु की ऊर्जा के अनुसार शरीर की ऊर्जा का संतुलन शुरू हो जाए तथा शनैः शनैः व्यक्ति गर्म तासीर के खानपान को कम ओर आनुपातिक करने लग जाए।
धार्मिक मान्यताओं में शरीर की ठंडी ऊर्जा बढाने की शुरूआत चैत्र कृष्ण सप्तमी से शुरू होती है। शरीर को शीतल रखने के कारण इसे शीतला सप्तमी के नाम से जाना जाता है। धार्मिक मान्यता मे यह देवी चेचक, टाईफाइड, मोतीझरा की कारक होती है। अतः अनिष्ट से बचा जा सके।
शीतला देवी की मूर्ति को खूब जल से स्नान कराया जाता है तथा एक दिन पूर्व का बना भोजन देवी के अर्पण किया जाता है। उस दिन घर में अग्नि नही जलाई जाती है ताकि शरीर व घर दोनो में जल तत्व की प्रधानता बढे तथा महामारी व रोग से बचा जा सके।
संत जन कहते है कि हे मानव, ऋतु परिवर्तन के इस काल में बाहरी गरमी भी बढ़ती जाती है और सर्दी में शरीर की ऊर्जा भी खानपान से गर्म रहती है। इस कारण शरीर की ऊर्जा को गर्मी की ऋतु में कम करनी पड़ती है। शीतल जलरूपी शक्ति ही शरीर की गर्मी को रोकती है और गर्मी के रोगों को शरीर पर प्रकट नहीं होने देती है। शरीर के जल तत्व को बढा अग्नि तत्व को कम कर ऋतु के अनुसार शरीर को ढालने का पर्व ही शीतला है।
धर्म व आस्था ने इसे शीतला माता के पर्व के रूप में माना तथा चेचक आदि महामारी होने की आशंका से बचाना बताया। विज्ञान भले ही इस मान्यता को न माने लेकिन सदियों से चले आ रहे इस पर्व को सदा व सर्वत्र माना जाता है।
देवी की प्रसन्नता के लिए ठंडा भोजन, नेवेध, ज्वार की राबड़ी, दही व जल अर्पण किया जाता है तथा इस प्रसाद को भोजन के रूप मे ग्रहण किया जाता है। इसलिए हे मानव बदलते ऋतु चक्र के गुणधर्म अनुसार व्यवहार कर।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर