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श्राद्ध कर्म : पितरों की प्रसन्नता और स्वधा शक्ति - Sabguru News
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श्राद्ध कर्म : पितरों की प्रसन्नता और स्वधा शक्ति

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श्राद्ध कर्म : पितरों की प्रसन्नता और स्वधा शक्ति

सबगुरु न्यूज। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार सृष्टि का सृजन करने वाले जगत पिता ब्रह्माजी ने सृष्टि के आरम्भ में सात पितरों का सृजन किया। इनमें चार मूर्तिमान थे और तीन तैज: स्वरूप थे। इन सातों पितरों के लिए भोजन के लिए श्राद्ध तर्पणपूर्वक दिया हुआ पदार्थ निश्चित किया गया।

ब्रह्माजी तो चले गए लेकिन पितरों को दिया जाने वाला भोजन फिर भी पितर पा नहीं सके और उनकी क्षुधा शांत नहीं होने के कारण वे उदास होकर ब्रह्माजी के पास गए और अपनी व्यथा सुनाईं। तब ब्रह्माजी ने एक कन्या को अपने मानस से उत्पन्न किया। मूल प्रकृति जगदम्बा की अंशभूता इस शक्ति का नाम “स्वधा” रखा गया। इसे पितरों की पत्नी बनाया गया तथा ब्रह्माजी ने पितरो को सौंप दिया और बताया कि पितरों के नाम से जो भी पदार्थ अर्पण किया जाए उसे स्वधा के नाम से दिया जाए ताकि पितरों को भोजन मिल सके।

आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मघा नक्षत्र में या श्राद्ध के दिंन यत्नपूर्वक स्वधा की पूजा करके तत्पश्चात श्राद्ध कर्म करना चाहिए। जो बुद्धि का अभिमानी व्यक्ति स्वधा देवी की उपासना के बिना श्राद्ध कर्म करता है उसके श्राद्ध और तर्पण सफल नहीं होते हैं। पितर सदा इनकी पूजा करते हैं और इनकी कृपा से ही श्राद्धो का फल मिलता है। स्वधा स्वधा स्वधा यदि तीन बार इनका स्मरण किया जाए तो श्राद्ध बलि और तर्पण के फल व्यक्ति को मिलते हैं। स्वधा देवी को ही पितरों की प्राण तुल्या और श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। ऐसी मान्यता देवी भागवत पुराण की है।

शास्त्रीय और धार्मिक मान्यताओं के अतिरिक्त भी एक बहुत बडा तबका अपनी श्रद्धा और विश्वास के अनुसार श्राद्ध कर्म करता है और अपने मृतकों की याद में दान पुण्य तर्पण और श्राद्ध तथा जन कल्याण के कार्य करता है। इसी विश्वास के साथ की हम हमारे पूर्वजों के कारण ही उत्पन्न हुए हैं उन्होंने हमारे वंश को आगे बढाया है भले ही उनका भौतिक या अभौतिक योगदान कुछ हो या नहीं हो। सदियों से चली आ रही यह श्राद्ध की मान्यताएं आज भी विधमान है और व्यक्ति अपने कुल परिवार की परम्परा के अनुसार श्राद्ध कर्म करता है भले ही उन्हे शास्त्रीय ज्ञान ना हो।

संत जन कहते हैं कि हे मानव, सभ्यता और संस्कृति में मानवीय मूल्यों को बनाए रखने के लिए मृतकों का सम्मान भी किया जाना एक सामाजिक मूल्य है भले ही उस का कुछ भी योगदान नहीं रहा हो या अच्छा या बुरा कहलाने वाला रहा हो। अच्छे और बुरे की परिभाषा काल और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है और अपनी सोच का भी दृष्टि कोण है कि कौन बुरा या भला है। जो भी हो जो इस दुनिया से चला गया प्राकृतिक न्याय सिद्धांत भी उसे माफ कर देते हैं।

इसलिए हे मानव तू भले ही श्राद्ध कर्म कर या मत कर लेकिन मृतकों को कोस मत क्योंकि यह संस्कृति से हीन व्यवहार है। जो चला गया उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है लेकिन उन्हें कोसने वाला ही नकारात्मक ऊर्जा को बढा लेता है।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर