सबगुरु न्यूज। मन की भूमि में उपजी हुई इच्छाएं शनैः शनैः जवान होती है और मन उन इच्छाओं को बडे नाज से पालता हुआ उसे यौवन की दहलीज पर ले जाता है। इच्छाओं को पूरा करने के लिए मन कर्म के रथ पर सवार होकर फल की ओर बढता है। फल के वृक्ष के चारों ओर गहरी खाईयां होती है लेकिन उत्साहित मन उन खाईयां को पाटकर फल के वृक्ष के पास पहुंचने के सेतु बनाने में लग जाता है।
मन की हर इच्छाएं इस सेतु को भलीभांति बनाने में कामयाब नहीं होतीं और कर्म का रथ उस गहरी खाई में गिर जाता है। फल से वंचित रह जाता है और कई इच्छाएं उस खाई पर सेतु बना कर सफल हो जाती है और फल को प्राप्त करती हुई विजयी रथ पर जीत की ध्वजा फहरा देती है।
दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति हर इच्छाओ को बडे नाज से पालता है पर एक के कर्म की हार होती है और दूसरे की जीत। यही इस जगत की पहेली बन कर रह जाती है जिसे भाग्य का नाम या परमात्मा की इच्छा मान ली जाती है। यही सोच कर्म को सांत्वना देकर रह जाती है।
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था और पांडव युद्ध को जीत चुके थे। अपनों की मृत्यु पर आंसू बहाते हुए पांडव अपने कुनबे के साथ नदी पर तर्पण करने पहुंचे। तर्पण करते समय धर्मराज युधिष्ठिर कुछ बैचैन से हो गए। अपनो को ही अपने अधिकार पाने के लिए मौत के घाट उतार दिया। तब संजय बोलते हैं कि हे धर्मराज युधिष्ठिर तुम विलाप मत करो और जो जा चुका है उसके लिए तर्पण करो क्योंकि तुमने भी अपनी हर इच्छाएं बड़ी नाज से पाली थीं और कुछ इच्छाओं को जीत लिया अब फल तुम्हारे हाथ में है। सभी इच्छाओं को भले ही कितने भी नाज से पाल लो पर हर इच्छाएं पूरी नहीं होती है इसलिए जाओ और जो हार कर मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं उन्हें तर्पण दो।
संतजन कहते हैं कि हे मानव, महाभारत के शांति पर्व की यह वार्ता संदेश देती है कि हर इच्छाएं पूरी नहीं होती। भले ही बाधाओं की खाई को पाटने के कैसे भी ओर कितने भी प्रयास कर लिए हो।
इसलिए हे मानव, मन की जिन इच्छाओं पर जीत ना हो सकीं, वो मृत हो चुकी हैं उन्हें शीतलता के विचार से तर्पण देकर भुला दे ओर आगे बढ़। इच्छाओं के सागर कभी खाली नहीं होते हैं। इसी आशा के साथ तू आगे बढ़ और फिर मजबूत सेतु का निर्माण कर।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर