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hindu mythology stories by joganiya dham pushkar-संस्कृति का अमृत कुंभ : सामाजिक व्यवहारों का मंथन - Sabguru News
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संस्कृति का अमृत कुंभ : सामाजिक व्यवहारों का मंथन

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संस्कृति का अमृत कुंभ : सामाजिक व्यवहारों का मंथन

सबगुरु न्यूज। समाज सामाजिक सम्बन्धों का ताना बाना होता है। सम्बन्ध ही समाज का विस्तार करते हैं और उसे सागर जैसा बना देते हैं। इस संसार रूपी सागर में समाज के विभिन्न लोग सामाजिक क्रियाकलाप के माध्यम से एक दूसरे के निकट आ जाते हैं और उनकी आर्थिक सामाजिक धार्मिक राजनैतिक आदि कार्य एक दूसरे पर आश्रित हो जाती हैं। इन सभी क्षेत्रों में जब मंथन होता है तो समाज में संस्कृति नाम का अमृत कुंभ प्रकट होता है और इसी अमृत कुंभ के अमृत का बंटवारा लगातार चलता रहता है और मानव सभ्यता और संस्कृति दिनोंदिन समृद्धि की ओर बढ़ती जातीं हैं।

बिना संस्कृति के केवल पशु समाज ही होता है जिसमें चौदह मनोवृत्तियां तो मानव समाज की तरह होती हैं लेकिन पन्द्रहवीं मनोवृत्ति संस्कृति नहीं होती और इसी कारण किसी भी आचार विचार, रहन सहन और खान पान, मान्यता, श्रद्धा, विश्वास, व्यवहार, मूल्य और प्रतिमान से परे होता है और ना ही उसके सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक सम्बन्ध बनते हैं।

मानव समाज में यही संस्कृति, सामाजिक व्यवहारों और सामाजिक क्रियाओं के माध्यम से समाज का विस्तार करती है और उन सब में लगातार मंथन होता रहता है। इससे दो तरह की संस्कृति समाज रूपी सागर के मंथन प्रकट होती है। एक भौतिक तथा दूसरी अभौतिक संस्कृति।

भौतिक संस्कृति के माध्यम से प्राणी शरीर के लिए सुख साधनों तथा का लगातार विकास करता है और आर्थिक रूप से समृद्ध होकर विकास की धारा में आगे बढ़ने का कार्य करता है। अभौतिक संस्कृति में मानव आन्तरिक मन को मान्यता, श्रद्धा, विश्वास, व्यवहार, मूल्य और प्रतिमान आचार विचार, रहन सहन और खान पान से जोड़कर मानवीय मूल्यों की रक्षा तथा जीव व जगत के कल्याण में जुडा रहता है।

अभौतिक संस्कृति के मूल्य और प्रतिमान आचार विचार, रहन सहन और खान पान, मान्यता, श्रद्धा, विश्वास, व्यवहार आदि ही लगातार मानव समाज को आतंरिक मन से जोड़े रखने का कार्य करते हैं और उन्हीं के फलस्वरूप मान्यताएं उन्हें सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक मेलों से जोड़े रखती है। इन्हीं मेलों में एकत्र हुआ समाज हम की भावना के साथ विभिन्नता में एकता का एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है।

यहां पर भौतिक संस्कृति मानव को हर सुख सुविधाओं को सुलभ करवाती है तो अभौतिक संस्कृति अपना परचम लहराकर समाज के प्राणियों को किसी मान्यताएं और विश्वास के तहत बिना बुलाए एकत्र करती है।

संतजन कहते हैं कि हे मानव, समाज एक सागर की तरह विशाल होता है और उसमें मानव सम्बन्ध का ताना बाना गूंथता हुआ उसका विस्तार करता है। वहां व्यवहार और सामाजिक क्रियाओं में लगातार मंथन होता रहता है। समाज की भौतिक व अभौतिक उन्नति के लिए। इन्हीं मंथन में संस्कृति रूपी अमृत कलश निकलता है। इसी अमृत कुंभ के मेले में मानव सदा स्नान करता हुआ भौतिक और अभौतिक संस्कृति को सदा अमर बनाए रखता है। इन्हीं मेलों में शाही और जन सामान्य सभी अभौतिक उन्नति तो करता ही है तथा साथ साथ दुनिया की कई भौतिक संस्कृति से रूबरू हो जाता है।

इसलिए हे मानव तू भौतिक संस्कृति को बनाए रखने के लिए कर्म के सही मार्ग का चयन कर तथा अभौतिक संस्कृति को उन्नत करने के लिए संस्कृति के मूल्य और प्रतिमान, आचार विचार, रहन सहन और खान पान, मान्यता, श्रद्धा, विश्वास, व्यवहार को कुचल मत तथा सामाजिक मंथन से निकले इस अमृत कुंभ के कलश से सदा स्नान कर।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर