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जीत का हकदार आखिर कौन?

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जीत का हकदार आखिर कौन?

सबगुरु न्यूज। संस्कृति के सागर में मर्यादा और अमर्यादा दोनों ही उलझ पड़ी तथा दोनों ही अपनी-अपनी विशेषता के तराने, ढोल नगाडे और शहनाईयो की गूंज में सुनाने लगी। दोनों ने ही दमदारी दिखाई और कम नहीं पडीं, क्योंकि दोनों ही बुद्धि की फसलें थी।

मर्यादा की फसल पर अमर्यादा के बोलों की भारी, तेज ओलावृष्टि होने लगी और वह जमीन पर गिर कर नष्ट होने लगी। मर्यादा का यह हाल देख कर अमर्यादा हंस पडी तथा बोली अरी बहन सदियों से आज तक मेरा मुकाबला कोई नहीं कर सका ओर तू सदियों से बेकार ही मुझसे उलझती आ रही है।

मर्यादा जमीनी पर पडी आंसू बहा रही थी और अमर्यादा के बोल उसे लगातार घायल करते जा रहे थे। यह हाल देख कर अमर्यादा कहने लगी अरी बहन मैने अपना प्रचंड रूप दिखाकर राजाओं के राज छुडवा दिए, योगियों के योग नष्ट कर दिए। धनवानो को लक्ष्मी विहीन बना डाला। प्रजा से बगावत करवा डाली और सत्यवादियों को मरवा डाला।

झूठ, फरेब, पाखंड और अत्याचार यह सब मेरे गुणों की शोभा बढाते हैं। मै छल कपट के पाशे फेंकती हू और सभी के सामने अपनी जीत का ढंका बजवाती हूं, लोग डर कर मेरी जय जय कार के नारे लगाते हैं।

मैं सबके घरों में घुस कर घरों में ही बंटवारा करवा देतीं हूं। इतना ही नहीं मै जाति, समाज, वर्ग, धर्म, अर्थ, कर्म सभी में धमाके से प्रवेश कर सभी को बांट कर अपना ही राज कायम करती हूं।

ओर हां, ऐ मर्यादा तू मुझसे क्यों बैर रखती है और सदा ही क्यों मेरा विरोध करती है। देख तू मुझसे मित्रता कर ले, हम दोनों मिलकर नया इतिहास रचेंगे और आने वालीं पीढियां भी तेरी तरह सदियों से आज तक दुख नहीं पा सकेगी।

जमीन पर घायल हुई मर्यादा रो रो कर कह रही है कि बहन तुझे कभी भी सुद्बुद्धि नहीं आएगी क्योंकि तेरा नाम ही अमर्यादा है और तू संस्कृति पर लगा एक भारी कलंक हैं। तू भले ही अपने हथकंडों से सदा सब कुछ हासिल कर भी लिया हो पर उसकी उम्र ज्यादा नहीं रही। हर बार आखिर में ओंधें मुंह गिरी। मैं भले ही तेरे बडे बोलों से जख्मी होती रही, घायल हो गई और दर दर भटकती रही फिर भी कभी अपनी हार नहीं मानी। आखिर तुझे सदा जमीदोज करतीं रही। तेरा मेरा यह संघर्ष सदा चलता ही रहेगा।

अमर्यादा हंस कर बोलीं तो तू ही बता कि आखिर कौन जीत का हकदार है। तब मर्यादा बोली असली हकदार मै ही हूं और सदियों से मै ही तेरा अंत में बार बार करती आई हूं और करतीं रहूंगी।

संत जन कहते है कि हे मानव मर्यादा ही समाज और संस्कृति की विरासत होती है। वह खरे सोने के आभूषणों की तरह होती है जिसमें तपकर सदा निखार ही आता है और अमर्यादा खोटी धातु के आभूषण होते हैं जिनकी चमक कुछ दिनों बाद ही फीकी पड जाती है और वह मूल्य विहिन हो जाती है।

इसलिए हे मानव तू व्यवहार में सदा मर्यादा बनाए रख जिससे घर, परिवार, समाज, जाति, वर्ग, धर्म और संस्कृति सभी दिनों दिन प्रगति करते रहें और खुशियों के तराने शादीयानो पर गूंजते रहे।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर